स्वराज्य से कोई ख़ौफ है तो यह कि मुसलमानों की हालत कहीं और खराब न हो जाय। गलत तवारीखें पढ़-पढ़ कर दोनों फिरके एक दूसरे के दुश्मन हो गये हैं और मुमकिन नहीं कि हिन्दू मौका पाकर मुसलमानों से पुरानी अदावतों का बदला न लें, लेकिन इस ख्याल से तसल्ली होती है कि इस बीसवीं सदी में हिन्दुओं जैसी पढ़ी-लिखी जमाअत मज़हबी गरोहबन्दी की पनाह नहीं ले सकती। मज़हब का दौर तो ख़त्म हो रहा है; बल्कि यों कहो कि ख़त्म हो गया। सिर्फ हिन्दुस्तान में उसमें कुछ-कुछ जान बाकी है। यह तो दौलत का ज़माना है। अब कौम में अमीर और ग़रीब, जायदादवाले और मर-भुखे, अपनी-अपनी जमाअतें बनायेंगे। उनमें कहीं ज्यादा खूंरेजी होगी, कहीं ज्यादा तंगदिली होगी। आखिर एक-दो सदी के बाद दुनिया में एक सल्तनत हो जायगी। सबका एक कानून एक निज़ाम होगा, कौम के खादिम कौम पर हुकूमत करेंगे, मजहब शख्सी चीज़ होगी। न कोई राजा होगा, न कोई परजा।
फ़ोन की घण्टी बजी, ग़ज़नवी ने चोंगा कान से लगाया--मि० सलीम कब चलेंगे?
ग़ज़नवी ने पूछा--आप कब तैयार होंगे?
'मैं तैयार हूँ।'
'तो एक घण्टे में आ जाइए।'
सलीम ने लम्बी साँस खींचकर कहा--तो मुझे जाना ही पड़ेगा?
'बेशक! मैं आपके और अपने दोस्त को पुलिस के हाथ में नहीं देना चाहता।'
'किसी हीले से अमर को यहीं बुला क्यों न लिया जाय?'
'वह इस वक्त नहीं आयेंगे।'
सलीम ने सोचा, अपने शहर में जब यह ख़बर पहुँचेगी कि मैंने अमर को गिरफ्तार किया, तो मुझ पर कितने जूते पड़ेंगे! शांतिकुमार तो नोच ही खायेंगे और सकीना तो शायद मेरा मुँह देखना भी पसन्द न करे। इस ख़्याल से वह काँप उठा। सोने की हँसिया न उगलते बनती थी, न निगलते।
उसने उठकर कहा--आप डी० एम० पी० को भेज दें। मैं नहीं जाना चाहता।