इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोनों दो दिशाओं से मदरसे में आये।
अमरकान्त ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा--हम लोगों ने कितना अच्छा प्रोग्राम बनाया था कि एक साथ लौटे। एक क्षण का भी विलंब न हुआ। कुछ खा-पीकर फिर निकलें और आठ बजते-बजते लौट आयें।
आत्मानन्द ने भूमि पर लेटकर कहा--भैया, अभी तो मुझसे एक पग न चला जायगा, हाँ प्राण लेना चाहो, तो ले लो। दौड़ते-दौड़ले कचूमर निकल गया। पहले शर्बत बनवाओ, पीकर ठण्डे हों, तो आँखें खुलें।
'तो फिर आज काम समाप्त हो चुका।'
'हो या भाड़ में जाय, क्या प्राण दे दें। तुमसे हो सकता है करो, मुझसे तो नहीं हो सकता।'
अमर ने मुसकराकर कहा---यार! मुझसे दूने तो हो, फिर भी चें बोल गये। मुझे अपना बल और अपना पाचन दे दो, फिर देखो, मैं क्या करता हूँ।
आत्मानन्द ने सोचा था, उनकी पीठ ठोंकी जायगी, यहाँ उनके पौरुष पर आक्षेप हुआ। बोले---तुम मरना चाहते हो, मैं जीना चाहता हूँ।
'जीने का उद्देश्य तो कर्म है।'
'हाँ, मेरे जीवन का उद्देश्य कर्म ही है। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तो अकाल मृत्यु है।'
'अच्छा शर्बत पिलवाता हूँ, उसमें दही भी डलवा दूँ?'
'हाँ, दही की मात्रा अधिक हो और दो लोटे से कम न हो। इसके दो घण्टे के बाद भोजन चाहिए।'
'मार डाला! तब तक तो दिन ही ग़ायब हो जायगा।'
अमर ने मुन्नी को बुलाकर शर्बत बनाने को कहा---और स्वामीजी के बराबर ही ज़मीन पर लेटकर पूछा---इलाके की क्या हालत है?
'मुझे तो भय हो रहा है कि लोग धोखा देंगे। बेदखली शुरू हुई, तो बहुतों के आसन डोल जायेंगे।'
'तुम तो दार्शनिक न थे, यह घी पत्ते पर या पत्ता घी पर की शंका कहाँ से लाये?'