फेंके गये। यह अच्छे आसार नहीं हैं। मुझे खौफ़ है, कोई हंगामा न हो जाय। अपने हक के लिए या बेजा जुल्म के खिलाफ़ रिआया में जोश हो, तो मैं इसे बुरा नहीं समझता, लेकिन यह लोग कायदे-कानून के अन्दर रहेंगे, मुझे इसमें शक है। तुमने गूगों को आवाज़ दी, सोतों को जगाया; लेकिन ऐसी तहरीक के लिए जितने जब्त और सब्र की जरूरत है, उसका दसवाँ हिस्सा भी मुझे नजर नहीं आता।
अमर को इस कथन में शासन-पक्ष की गन्ध आयी। बोला---तुम्हें यकीन है कि तुम भी वही गलती नहीं कर रहे जो हुक्काम किया करते हैं? जिनकी जिन्दगी आराम और फ़रागत से गुजर रही है, उनके लिए सब्र और जब्त की हाँक लगाना आसान है, लेकिन जिनकी जिन्दगी का हरेक दिन एक नयी मुसीबत है, वह नजात के अपनी जनवासी चाल से आने का इन्तजार नहीं कर सकते। वह उसे खींच लाना चाहते हैं, और जल्द-से-जल्द।
'मगर नजात के पहले कयामत आयेगी, यह भी याद रहे।'
'हमारे लिए यह अंधेर ही कयामत है। जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहाँ। उस पर भी हम आठ आने पर राजी थे; मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आखिर सरकार किफायत क्यों नहीं करती? पुलिस और फौज और इन्तजाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाये जाते हैं? किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमजोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?'
सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा--इसका नतीजा क्या होगा, जानते हो? गांव-के-गाँव बरबाद हो जायेंगे, फौजी कानून जारी हो जायगा, जायद पुलिस बैठा दी जायगी, फ़स्लें नीलाम कर दी जायगी, जमीनें जब्त हो जायँगी। कयामत का सामना होगा।
अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा--जो कुछ भी हो, मर-मिटना जुल्म के सामने सिर झुकाने से अच्छा है।
मदरसे के सामने हुजूम बढ़ता जाता था। सलीम ने विवाद का अन्त करने के लिए कहा---चलो इस मुआमले पर रास्ते में बहस करेंगे। देर हो रही है।
अमर ने चटपट कुरता गले में डाला और आत्मानन्द से दो-चार जरूरी