बाते करके आ गया। दोनों आदमी आकर मोटर पर बैठे। मोटर चली तो सलीम की आँखों में आँसू डबडबाये हुए थे।
अमर ने सशंक होकर पूछा--मेरे साथ दगा तो नहीं कर रहे हो?
सलीम ने अमर के गले लिपट कर कहा--इसके सिवा और दूसरा रास्ता न था। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें पुलिस के हाथों ज़लील किया जाय।
'तो ज़रा ठहरो, मैं अपनी कुछ ज़रूरी चीज़ें तो ले लूँ।'
'हाँ हाँ, ले लो, लेकिन राज़ खुल गया, तो यहाँ मेरी लाश नज़र आयेगी।'
'तो चलो कोई मुज़ायका नहीं।'
गाँव के बाहर निकले ही थे कि मुन्नी आती हई दिखाई दी। अमर ने मोटर रुकवाकर पूछा--तुम कहाँ गयी थीं मुन्नी? धोबी से मेरे कपड़े लेकर रख लेना, सलोनी काकी के लिए मेरी कोठरी में ताक पर दवा रखी है। पिला देना।
मुन्नी ने सहमी हुई आँखों से देखकर पूछा--तुम कहाँ जाते हो?
'एक दोस्त के यहाँ दावत खाने जा रहा हूँ।'
मोटर चली। मुन्नी ने पूछा--कब तक आओगे?
अमर ने सिर निकालकर उसे दोनों हाथ जोड़कर कहा--जब भाग्य लाये।
साथ पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल धप्पा, हँसी-मज़ाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक, दोनों ही देशभक्त, दोनों ही किसानों के शुभेच्छु; पर एक अफसर था, दूसरा क़ैदी। दोनों उठे हुए बैठे थे, पर जैसे बीच में कोई दीवार खड़ी हो। अमर प्रसन्न था, मानो शहादत के ज़ीने पर चढ़ रहा हो। सलीम दुःखी था, जैसे भरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो। विकास के सिद्धान्त खुली सभा में समर्थन करके उसकी आत्मा विजयी होती, निरंकुशता की शरण लेकर वह जैसे कोठरी में छिपा बैठा था।
सहसा सलीम ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा--क्यों अमर, मुझसे खफा हो!