है। उनकी कठोरता, उनका सोंधापन, उनकी सुगन्ध उसे कभी इतनी प्रिय न लगी थीं। उसका चित्त कुछ अधिक कोमल हो गया है, जैसे पाल में पड़कर कोई फल अधिक रसीला, स्वादिष्ट, मधुर, मुलायम हो गया। लल्लू को वह एक क्षण के लिए भी आँखों से ओझल न होने देती। वही उसके जीवन का आधार था। दिन में कई बार उसके लिए दूध, हलवा आदि पकाती, उसके साथ दौड़ती, खेलती, यहाँ तक कि जब वह बुआ या दादा के लिये रोता, तो खुद रोने लगती थी। अब उसे बार-बार अमर की याद आती है। उसकी गिरफ्तारी और सजा का समाचार पाकर उन्होंने जो खत लिखा होगा, उसे पढ़ने के लिए उसका मन तड़प-तड़पकर रह जाता है।
लेडी मेट्रन ने आकर कहा---सुखदा देवी, तुम्हारे ससुर तुमसे मिलने आये हैं। तैयार हो जाओ। साहब ने २० मिनट का समय दिया है।
सुखदा ने चट-पट लल्लू का मुंँह धोया, नये कपड़े पहनाये, जो कई दिन पहले जेल में सिये थे, और उसे गोद में लिये मेट्रन के साथ बाहर निकली, मानो पहले से ही तैयार बैठी हो।
मुलाकात का कमरा जेल के मध्य में था और रास्ता बाहर ही से था। एक महीने के बाद जेल से बाहर निकलकर सुखदा को ऐसा उल्लास हो रहा था, मानो कोई रोगी शय्या से उठा हो। जी चाहता था, सामने के मैदान में खूब उछले। और लल्लू तो चिड़ियों के पीछे दौड़ रहा था।
लाला समरकान्त वहाँ पहले ही से बैठे हुए थे। लल्लू को देखते ही गदगद हो गये और गोद में उठाकर बार-बार मुँह चूमने लगे। उसके लिए मिठाई, खिलौने, फल, कपड़े, पूरा एक गट्ठर लाये थे; सुखदा भी श्रद्धा और भक्ति से पुलकित हो उठी। उनके चरणों पर गिर पड़ी और रोने लगी; इसलिए नहीं, कि उस पर कोई विपत्ति पड़ी है, बल्कि रोने में आनन्द आ रहा है।
समरकान्त ने आशीर्वाद देते हुए पूछा--यहाँ तुम्हें जिस बात का कष्ट हो, मेट्रन साहब से कहना! मुझ पर इनकी बड़ी कृपा है। लल्लू अब शाम को रोज बाहर खेला करेगा। और किसी बात की तकलीफ तो नहीं है?
सुखदा ने देखा, समरकान्त दुबले हो गये हैं। स्नेह से उसका हृदय