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नीत-सा कोमल शिशु उसकी गोद में खेल रहा था। उसकी सम्पूर्ण चेतना इसी कल्पना में मग्न हो गयी। दीवार पर शिशु कृष्ण का एक सुन्दर चित्र लटक रहा था। उस चित्र में आज उसे जितना मार्मिक आनन्द हुआ, उतना और कभी न हुआ था। उसकी आँखें सजल हो गयीं।

सुखदा ने उसे एक पान का बीड़ा देते हुए कहा--अम्माँ कहती हैं, बच्चे को लेकर मैं लखनऊ चली जाऊँगी। मैंने कहा, अम्माँ तुम्हें बुरा लगे या भला, मैं अपना बालक न दूँगी।

अमरकान्त ने उत्सुक होकर पूछा--तो बिगड़ी होंगी ?

'नहीं जी, बिगड़ने की क्या बात थी। हाँ, उन्हें कुछ बुरा जरूर लगा होगा; लेकिन मैं दिल्लगी में भी अपने सर्वस्व को नहीं छोड़ सकती।'

'दादा ने पुलिस--कर्मचारी की बात अम्माँ से भी कही होगी ?'

'हाँ मैं जानती हूँ कही है। जाओ आज अम्माँ तुम्हारी कैसी खबर लेती है।'

'मैं आज जाऊँगा ही नहीं।'

'चलो मैं तुम्हारी वकालत कर दूँगी।'

'मुआफ़ कीजिए। वहाँ मुझे और भी लज्जित करोगी।'

'नहीं, सच कहती हूँ। अच्छा बताओ, बालक किसको पड़ेगा, मुझे या तुम्हें ? मैं कहती हूँ तुम्हें पड़ेगा?'

'मैं चाहता हूँ तुम्हें पड़े।'

'यह क्यों? मैं तो चाहती हूँ तुम्हें पड़े।'

'तुम्हें पड़ेगा, तो मैं उसे और ज्यादा चाहूँगा।'

'अच्छा, उस स्त्री की कुछ खबर मिली, जिसे गोरों ने सताया था?'

'नहीं, फिर तो कोई खबर न मिली।'

'एक दिन जाकर सब कोई उसका पता क्यों नहीं लगाते? या स्पीच देकर ही अपने कर्तव्य से मुक्त हो गये?'

अमरकान्त ने झेंपते हुए कहा--कल जाऊँगा।

'ऐसे होशियारी से पता लगाओ कि किसी को कानों-कान खबर न हो; अगर घरवालों ने उसका बहिष्कार कर दिया हो, तो उसे लाओ। अम्मा को

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कर्मभूमि