सुखदा ने देखा युवती में आत्म-सम्मान की कमी नहीं। लज्जित होकर बोली---यहाँ कोई रानी-महरानी नहीं है, बहन, मेरा जी अकेले घबराया करता था, इसलिए तुम्हें बुला लिया! हम दोनों यहाँ बहनों की तरह रहेंगी। क्या नाम है तुम्हारा?
युवती की कठोर मुद्रा नर्म पड़ गयी। बोली----मेरा नाम मुन्नी है। हरिद्वार से आयी हूँ।
सुखदा चौंक पड़ी। लाला समरकान्त ने यही नाम तो लिया था। पूछा---यहाँ किस अपराध में सजा हुई?
'अपराध क्या था? सरकार जमीन का लगान नहीं कम करती थी। चार आने की छुट हुई। जिन्स का दाम आधा भी नहीं उतरा। हम किसके घर से लाके देते। इस बात पर हमने फ़रियाद की। बस, सरकार ने सजा देना शुरू कर दिया।'
मुन्नी को सुखदा अदालत में कई बार देख चुकी थी। तबसे उसकी सूरत बहुत कुछ बदरल गयी थी। पूछा---तुम बाबू अमरकान्त को जानती हो? वह भी तो इसी मुआमले में गिरफ्तार हुए हैं?
मुन्नी प्रसन्न हो गयी---जानती क्यों नहीं, वह तो मेरे घर ही में रहते थे। तुम उन्हें जानती हो? वही तो हमारे अगुआ है।
सुखदा ने कहा---मैं भी काशी की रहनेवाली हूँ। उसी मुहल्ले में उनका भी घर है! तुम क्या ब्राह्मणी हो?
'हूँ तो ठकुरानी, पर अब कुछ नहीं हूँ। जात-पाँत पूत-भतार सब को खो बैठी।'
'अमर बाबू कभी अपने घर की बातचीत नहीं करते हैं?'
'कभी नहीं। न कभी आना, न जाना; न चिट्ठी, न पत्तर।'
सुखदा ने कनखियों से देखकर कहा---मगर वह तो बड़े रसिक आदमी हैं। वहाँ गाँव में किसी पर डोरे नहीं डाले?
मुन्नी ने जीभ दाँतों तले दबायी---कभी नहीं बहूजी, कभी नहीं। मैंने तो उन्हें कभी किसी मेहरिया की ओर ताकते या हँसते भी नहीं देखा। न जाने किस बात पर घरवाली से रूठ गये। तुम तो जानती होगी।
सुखदा ने मुसकराते हुए कहा---रूठ क्या गये, स्त्री को छोड़ दिया।