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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३४१

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छिपकर घर से भाग गये। बेचारी औरत घर में बैठी हुई है। तुमको मालूम न होगा, उन्होंने जरूर कहीं-न-कहीं दिल लगाया होगा।

मुन्नी ने दाहिने हाथ को साँप के फन की भाँति हिलाते हए कहा--ऐसी बात होती, तो गाँव में छिपी न रहती बहूजी। मैं तो रोजही दो-चार बेर उनके पास जाती थी। कभी सिर ऊपर न उठाते थे। फिर उस दिहात में ऐसी थी ही कौन, जिस पर उनका मन चलता। न कोई पढ़ी न लिखी, न गुन, न सहूर।

सुखदा ने फिर नब्ज़ टटोली--मर्द गुन-सहूर, पढ़ना-लिखना नहीं देखते। वह तो रूप-रंग देखते हैं और वह तुम्हें भगवान ने दिया ही है। जवान भी हो।

मुन्नी ने मुँह फेरकर कहा--तुम तो गाली देती हो बहूजी। मेरी ओर भला वह क्या देखते, जो उनके पाँव की जूतियों के बराबर भी नहीं। लेकिन तुम कौन हो बहूजी, तुम यहाँ कैसे आयीं?

'जैसे तुम आयीं, वैसे ही मैं भी आयी।'

'तो यहाँ भी वही हलचल है?'

'हाँ, कुछ उसी तरह की है।'

मुन्नी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऐसी विदुषी देवियाँ भी जेल में भेजी गयी हैं। भला इन्हें किस बात का दुःख होगा!

उसने डरते-डरतें पूछा--तुम्हारे स्वामी भी सजा पा गये होंगे?

'हाँ, तभी तो मैं आयी।'

मुन्नी ने छत की ओर देखकर आशीर्वाद दिया--भगवान् तुम्हारा मनोरथ पूरा करें बहूजी! गद्दी-मसनद लगानेवाली रानियाँ जब तपस्या करने लगीं, तो भगवान् वरदान भी जल्दी ही देंगे। कितने दिन की सजा हुई है? मुझे तो छ: महीने की है।

सुखदा ने अपनी सजा की मियाद बताकर कहा--तुम्हारे ज़िले में बड़ी सख्तियाँ हो रही होंगी। तुम्हारा क्या विचार है, लोग सख्ती से दब जायँगे?

मुन्नी ने मानो क्षमा याचना की--मेरे सामने तो लोग यही कहते थे कि चाहे फाँसी पर चढ़ जायें, पर आधे से बेसी लगान न देंगे; लेकिन अपने दिल से सोचो, जब बैल-बधिये छीने जाने लगेंगे, सिपाही घरों में

कर्मभूमि
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