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पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घण्टे घूमते रहते थे। पाँच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से न निकल सकता था। पुलिस को इत्तला दिये बगैर घर में मेहमान को ठहराने की भी मनाही थी। फौजी क़ानून जारी कर दिया गया था। कितने ही घर जला दिये गये थे। और उनके रहनेवाले हबूड़ों की भाँति वृक्षों के नीचे बाल-बच्चों को लिये पड़े हुए थे। पाठशाला में भी आग लगा दी गयी थी और उसकी आधी-आधी काली दीवारें मानो केश खोले मातम कर रहीं थी। स्वामी आत्मानन्द बाँस की छतरी लगाये अब भी वहाँ डटे हुए थे। जरा-सा मौक़ा पाते ही इधर उधर से दस-बीस आदमी आकर जमा हो जाते; पर सवारों को आते देखा और गायब।

सहसा लाला समरकान्त एक गट्ठर पीठ पर लादे मदरसे के सामने आकर खड़े हो गये। स्वामीजी ने दौड़कर उनका बिस्तर ले लिया और खाट की फ़िक में दौड़े। गाँव-भर में बिजली की तरह ख़बर दौड़ गयी---भैया के बाप आये हैं। हैं तो वृद्ध; मगर अभी टनमन हैं। सेठ-साहूकार-से लगते हैं। एक क्षण में बहुत-से आदमियों ने आकर घेर लिया। किसी के सिर में पट्टी बंधी थी, किसी के हाथ में। कई लँगड़ा रहे थे। शाम हो गयी और आज कोई विशेष खटका न देखकर और सारे इलाके में डण्डे के बल से शान्ति स्थापित करके पुलिस विश्राम कर रही थी। बेचारे रात-दिन दौड़ते-दौड़ते अधमरे हो गये थे।

गूदड़ ने लाठी टेकते हुए आकर समरकान्त के चरण छुए और बोले---अमर भैया का समाचार तो आपको मिला होगा। आजकल तो पुलिस का धावा है। हाकिम कहता है--बारह आने लेंगे, हम कहते हैं हमारे पास है ही नहीं, दें कहाँ से। बहुत-से लोग तो गाँव छोड़कर भाग गये। जो हैं, उनकी दशा आप देख ही रहे हैं। मुन्नी बहू को पकड़कर जेहल में डाल दिया। आप ऐसे समय में आये कि आपकी कुछ ख़ातिर भी नहीं कर सकते।

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कर्मभूमि