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समरकान्त मदरसे के चबूतरे पर बैठ गये और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे---इन गरीबों की क्या सहायता करें। क्रोध की एक ज्वाला सी उठकर रोम-रोम में व्याप्त हो गयी। पूछा---यहाँ कोई अफसर भी तो होगा?

गूदड़ ने कहा---हाँ, अपसर तो एक नहीं, पचीस हैं। सबसे बड़े अपसर तो वही मियाँजी हैं, जो अमर भैया के दोस्त है।

'तुम लोगों ने उस लफंगे से पूछा नहीं---मार-पीट क्यों करते हो, क्या यह भी क़ानून है?'

'गूदड़ ने सलाना का मड़ैया की ओर देखकर कहा---भैया कहते तो सब कुछ हैं, जब कोई सुने। सलीम साहब ने ख़ुद अपने हाथों से हंटर मारे। उनकी बेदर्दी देखकर पुलिसवाले भी दाँतों उँगली दबाते थे। सलोनी मेरी भावज लगती है। उसने उनके मुँह पर थूक दिया था। यह उसे न करना चाहिए था। पागलपन था और क्या। मियाँ साहब आग हो गये और बुढ़िया को इतने हंटर जमाये कि भगवान ही बचायें तो बचे। मुदा वह भी है अपनी धुन की पक्की, हरेक हंटर पर गाली देती थी। जब बेदम होकर गिर पड़ी, तब जाकर उसका मुँह बन्द हुआ। भैया उसे काकी-काकी करते रहते थे। कहीं से आवें, सबसे पहले काकी के पास जाते थे। उठने लायक होती तो ज़रूर से ज़रूर आती।

आत्मानन्द ने चिढ़कर कहा---अरे तो अब रहने भी दो, क्या सब आज ही कह डालोगे। पानी मँगवाओ, आप हाथ-मुँह धोयें, ज़रा आराम करने दो, थके-माँदे आ रहे हैं---वह देखो, सलोनी को भी ख़बर मिल गयी, लाठी टेकती चली आ रही है।

सलोनी ने पास आकर कहा---कहाँ हो देवरजी! सावन में आते तो तुम्हारे साथ झूला झूलती, चले हो कार्तिक में! जिसका ऐसा सिर्दार और ऐसा बेटा उसे किसका डर और किसकी चिन्ता। तुम्हें देखकर सारा दुख भूल गयी देवरजी!

समरकान्त ने देखा---सलोनी की सारी देह सूज उठी है और साड़ी पर लहू के दाग़ सूखकर कत्थई हो गये हैं। मुँह सूजा हुआ है। इस मुरदे पर इतना क्रोध! उस पर विद्वान बनता है! उनकी आँखों में खून उतर आया। हिंसा-भावना मन में प्रचण्ड हो उठी। निर्बल क्रोध और चाहे

कर्मभूमि
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