कुछ न कर सके, भगवान् की खबर ज़रूर लेता है। तुम अन्तर्यामी हो, सर्वशक्तिमान् हो, दोनों के रक्षक हो और तुम्हारी आँखों के सामने यह अन्धेर! इस जगत् का नियन्ता कोई नहीं है। कोई दयामय भगवान् सृष्टि का कर्ता होता, तो यह अत्याचार न होता! अच्छे सर्वशक्तिमान् हो! क्यों नरपिशाचों के हृदय में नहीं पैठ जाते, या वहाँ तुम्हारी पहुँच नहीं है। यह सब भगवान की लीला है। अच्छी लीला है! अगर तुम्हें भी ऐसी लीला में आनन्द मिलता है, तो तुम पशुओं से भी गये बीते हो! अगर तुम्हें इस व्यापार की ख़बर नहीं है, तो सर्वव्यापी क्यों कहलाते हो?
समरकान्त धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया था। भगवद्गीता का नित्य पाठ किया करते थे; पर इस समय वह सारा धर्मज्ञान उन्हें पाखण्ड-सा प्रतीत हुआ।
वह उसी तरह उठ खड़े हुए और पूछा--सलीम तो सदर में होगा?
आत्मानन्द ने कहा--आजकल तो यहीं पड़ाव है। डाकबँगले में ठहरे हुए हैं।
'मैं ज़रा उनसे मिलूँगा।'
'अभी वह क्रोध में हैं, आप मिलकर क्या कीजिएगा। आपको भी अपशब्द कह बैठेंगे।'
'यही देखने तो जाता हूँ कि मनुष्य की पशुता किस सीमा तक जा सकती है।
'तो चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ।'
गूदड़ बोल उठा---नहीं-नहीं, तुम न जइयो स्वामीजी! भैया, यह हैं तो संन्यासी और दया के अवतार, मुदा क्रोध में भी दुर्वासा मुनी से कम नहीं हैं। जब हाकिम साहब सलोनी को मार रहे थे तब चार आदमी इन्हें पकड़े हए थे, नहीं तो उस बखत मियाँ का खून चूस लेते, चाहे पीछे से फाँसी हो जाती। गाँव भर की मरहम-पट्टी इन्हीं के सुपुर्द है।
सलोनी ने समरकान्त का हाथ पकड़कर कहा--मैं चलूंगी तुम्हारे साथ देवरजी। उसे दिखा दूँगी कि बुढ़िया तेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी हुई है! तू मारनहार है, तो कोई तुझसे बड़ा राखनहार भी है। जब तक उसका हुक्म न हींगा तू क्या मार सकेगा।