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भगवान् में उसकी यह अपार निष्ठा देखकर समरकान्त की आँखें जल हो गयीं। सोचा---मुझसे तो ये मूर्ख ही अच्छे, जो इतनी पीड़ा और दुःख सहकर भी तुम्हारा ही नाम रटते हैं। बोले--नहीं भाभी मझे अकेले जाने दो। मैं अभी उनसे दो-दो बातें करके लौट आता हूँ।

सलोनी लाठीं सँभाल रही थी कि समरकान्त चल पड़े। तेजा और दर्जन आगे-आगे डाकबँगले का रास्ता दिखाते हुए चले।

तेजा ने पूछा---दादा,जब अमर भैया छोटे-से थे, तो बड़े शैतान थे न?

समरकान्त ने इस प्रश्न का आशय न समझकर कहा---नहीं तो, वह तो लड़कपन ही से बड़ा सुशील था।

दुर्जन ताली बजाकर बोला---अब कहो तेजू हारे कि नहीं? दादा, हमारा इनका वह झगड़ा है कि यह कहते हैं, जो लड़के बचपन में बड़े शैतान होते हैं, वही बड़े होकर सुशील हो जाते हैं; और मैं कहता हूँ, जो लड़कपन में सुशील होते हैं, वही बड़े होकर भी सुशील रहते हैं। जो बात आदमी में है नहीं, वह बीच में कहाँ से आ जायगी।

तेजा ने शंका की---लड़के में तो अक्कल भी नहीं होती, जबान होने पर कहाँ से आ जाती है? अँखुवे में तो खाली दो दल होते हैं, फिर उनमें डाल-पात कहाँ से आ जाते हैं? यह कोई बात नहीं। मैं ऐसे कितने ही नामी आदमियों के उदाहरन दे सकता हूँ, जो बचपन में बड़े पाजी थे मगर आगे चलकर महात्मा हो गये।

समरकान्त को बालकों के इस तर्क में बड़ा आनन्द आया। मध्यस्थ बनकर दोनों ओर कुछ सहारा देते जाते थे। रास्ते में एक जगह कीचड़ भरा हुला था। समरकान्त के जूते कीचड़ में फँसकर पाँव से निकल गये। इस पर बड़ी हँसी हुई।

सामने से पाँच सवार आते दिखायी दिये। तेजा ने एक पत्थर उठाकर एक सवार पर निशाना मारा। उसकी पगड़ी जमीन पर गिर पड़ी। वह तो घोड़े से उत्तरकर पगड़ी उठाने लगा, बाक़ी चारों घोड़े दौड़ाते हुए समरकान्त के पास आ पहुँचे।

तेजा दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया। दो सवार उसके पीछे दौड़े और नीचे से गालियाँ देने लगे। बाकी तीन सवारों ने समरकान्त को घेर

कर्मभूमि
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