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सलीम का हृदय अभी इतना काला न हुआ था कि उस पर कोई रंग ही न चढ़ता। सकुचाता हुआ बोला---लेकिन मेरी तरफ़ से आप ही को कहना पड़ेगा।

'हाँ-हाँ यह सब मैं कर दूँँगा; लेकिन ऐसा न हो, मैं उधर चलूँ, इधर तुम हंटरबाजी शुरू करो।'

'अब ज्यादा शर्मिन्दा न कीजिये।'

'तुम यह तजवीज़ क्यों नहीं करते कि असामियों की हालत की जाँच की जाय? आँखें बन्द करके हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं। पहले अपना इतमीनान कर लो कि तुम बेइंसाफ़ी तो नहीं कर रहे हो। तुम खुद ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते। मुमकिन है हुक्काम इसे पसन्द न करें; लेकिन हक़ के लिए नुकसान उठाना पड़े, तो क्या चिन्ता।'

सलीम को यह बातें न्याय-संगत जान पड़ीं। खूंटे की पतली नोक जमीन के अन्दर पहुँच चुकी थी। बोला--इस बुजुर्गाना सलाह के लिए आपका एहसानमन्द हूँ और इस पर अमल करने की कोशिश करूँगा।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा--आपके लिए क्या खाना बनवाऊँ?

'जो चाहे बनवाओ; पर इतना याद रक्खों कि मैं हिन्दू हूँ और पुराने जमाने का आदमी हूँ। अभी तक छूत-छात को मानता हूँ।'

'आप छूत-छात को अच्छा समझते हैं?'

'अच्छा तो नहीं समझता; पर मानता हूँ।'

'तब मानते ही क्यों हैं?'

'इसलिए कि संस्कारों को मिटाना मुश्किल है। अगर जरूरत पड़े, तो मैं तुम्हारा मल उठाकर फेंक दूँँगा; लेकिन तुम्हारी थाली में मुझसे न खाया जायगा।'

'मैं तो आज आपको अपने साथ बैठाकर खिलाऊँगा।'

'तुम प्याज, मांस, अण्डे खाते हो; मुझसे उन बरतनों में खाया ही न जायगा।'

'आप यह सब कुछ न खाइयेगा। मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज़ साबुन लगा कर नहाता हूँ।'

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कर्मभूमि