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'बरतनों को खूब साफ़ करा लेना।'

'आपका खाना हिन्दू बनायेगा, बस एक मेज पर बैठकर खा लेना होगा।'

'अच्छा, खा लूँगा भाई! मैं दूध और घी ख़ूब खाता हूँ।'

सेठजी तो संध्योपासना करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिंदु कांस्टेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले ही से रखा हुआ था। सलीम खुद आज यही भोजन करेगा। सेठजी सन्ध्या करके लौटे, तो देखा, दो कम्बल बिछे हुए हैं और दो थालियाँ रखी हुई हैं।

सेठजी ने खुश होकर कहा---यह तुमने बहुत अच्छा इन्तज़ाम किया।

सलीम ने हँसकर कहा--मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लूँ; नहीं, एक ही कम्बल रखता।

'अगर यह खयाल है तो तुम मेरे कम्बल पर आ जाओ। नहीं मैं ही आता हूँ।'

वह थाली उठाकर सलीम के कम्बल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान त्याग किया। सारी संपत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता।

सलीम ने चुटकी ली---अब तो आप मुसलमान हो गये।

सेठजी बोले--मैं मुसलमान नहीं हुआ, तुम हिन्दू हो गये।



प्रातःकाल समरकान्त और सलीम डाकबँगले से गाँव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भाँति कोहरे के नीचे पड़ी सिहर रही थी। कुछ लोग बन्दरों की भाँति छप्परों पर बैठे उसकी मरम्मत कर रहे थे और कहीं-कहीं स्त्रियाँ गोबर पाथ रही थीं। दोनों आदमी पहले सलोनी के घर गये।

सलोनी को ज्वर चढ़ा हुआ था और सारी देह फोड़े की भाँति दुख रही थी; मगर उसे गाने की धुन सवार थी—

सन्तो देखत जग बौराना।

कर्मभूमि
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