यह नहीं कि हाकिम को देखा और मारने दौड़े, मानो वह तुम्हारा दुश्मन है। मैं इन्हें समझा-बुझाकर लाया था कि मेल करा दूँ, दिलों की सफ़ाई हो जाय, और तुम उनसे लड़ने पर तैयार हो गयी!
यहाँ की हलचल सुनकर गाँव के और कई आदमी जमा हो गये; पर किसी ने सलीम को सलाम नहीं किया। सबकी त्यौरियाँ चढी हुई थीं।
समरकान्त ने उन्हें संबोधित किया---तुम्हीं लोग सोचो। यह साहब तुम्हारे हाकिम हैं। जब रिआया हाकिम के साथ गुस्ताखी करती है, तो हाकिम को भी क्रोध आ जाय तो कोई ताज्जुब नहीं। यह विचारे तो अपने को हाकिम समझते ही नहीं। लेकिन इज्जत तो सभी रखते हैं, हाकिम हों या न हों। कोई आदमी अपनी बेइज्जती नहीं देख सकता। बोलो गूदड़, कुछ ग़लत कहता हूँ।
गूदड़ ने सिर झुकाकर कहा--नहीं मालिक, सच ही कहते हो। मुदा वह तो बावली है। उसकी किसी बात का बुरा न मानो। सब के मुँह में कालिख लगा रही है और क्या।
'यह हमारे लड़के के बराबर हैं। अमर के साथ पढ़े, उसी के साथ खेले। तुमने अपनी आँखों देखा कि अमर को गिरफ्तार करने यह अकेले आये थे। क्या समझकर? क्या पुलीस को भेजकर न पकड़वा सकते थे? सिपाही हुक्म पाते ही आते और धक्के देकर बाँध ले जाते। इनकी शराफत थी कि खुद आये और किसी पुलिस को साथ न लाये। अमर ने भी वही किया, जो उसका धर्म था। अकेले आदमी को बेइज्जत करना चाहते, तो क्या मुश्किल था। अब तक जो कुछ हुआ, उसका इन्हें रंज है, हालांकि कसूर तुम लोगों का भी था। अब तुम भी पिछली बातों को भूल जाओ। इनकी तरफ से अब किसी तरह की सख्ती न होगी। इन्हें अगर तुम्हारी जायदाद नीलाम करने का हुक्म मिलेगा, नीलाम करेंगे, गिरफ्तार करने का हुक्म मिलेगा, गिरफ्तार करेंगे, तुम्हें बुरा न लगना चाहिए। तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो। लड़ाई नहीं, यह तपस्या है। तपस्या में क्रोध और द्वेष आ जाता है, तो तपस्या भंग हो जाती है।
स्वामीजी बोले--धर्म की रक्षा एक ओर से नहीं होती! सरकार नीति बनाती है। उसे नीति की रक्षा करनी चाहिए। जब उसके कर्म--