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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३५६

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चारी नीति को पैंरों से कुचलते हैं, तो फिर जनता कैसे नीति की रक्षा कर सकती है?

समरकान्त ने फटकार बताई---आप संन्यासी होकर ऐसा कहते हैं स्वामीजी। आपको अपनी नीतिपरता से अपने शासकों को नीति पर लाना है। यदि वह नीति पर ही होते, तो आपको यह तपस्या क्यों करनी पड़ती? आप अनीति पर अनीति से नहीं, नीति से विजय पा सकते हैं।

स्वामीजी का मुँह जरा-सा निकल आया। ज़बान बन्द हो गयी।

सलोनी का पीड़ित हृदय पक्षी के समान पिंजरे से निकलकर भी कोई आश्रय खोज रहा था। सज्जनता और सत्प्रेरणा में भरा हुआ यह तिरस्कार उसके सामने जैसे दाने बिखेरने लगा। पक्षी ने दो-चार बार गरदन झुकाकर दानों को सतर्क नेत्रों से देखा, फिर अपने रक्षक को 'आ, आ' करते सुना और पर फैलाकर दानों पर उतर आया।

सलोनी आँखों में आँसू भरे, दोनों हाथ जोड़े, सलीम के सामने आकर बोली--सरकार, मुझसे बड़ी खता हो गयी। माफ़ी दीजिए। मुझे जूतों से पीटिए...

सेठजी ने कहा---सरकार नहीं, बेटा कहो।

'बेटा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मूरख हूँ, बावली हूँ। जो सज़ा चाहे दो।'

सलीम के नेत्र भी सजल हो गये। हुकूमत का रोब और अधिकार का गर्व भूल गया। बोला--माताजी, मझे शर्मिन्दा न करो। यहाँ जितने लोग खड़े हैं, मैं उन सबसे और जो यहाँ नहीं हैं, उनसे भी अपनी खताओं की मुआफी चाहता हूँ।

गूदड़ ने कहा--हम तुम्हारे गुलाम हैं भैया, लेकिन मूरख जो उहरे आदमी पहचानते, तो क्यों इतनी बातें होतीं।

स्वामीजी ने समरकान्त के कान में कहा---मुझे तो जान पड़ता है कि दगा करेगा।

सेठजी ने आश्वासन दिया---कभी नहीं। नौकरी चाहे चली जाय; पर तुम्हें सतायेगा नहीं। शरीफ़ आदमी है।

'तो क्या हमें पूरा लगान देना पड़ेगा?'

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कर्मभूमि