आगे स्वर्ग की शीतल छाया है, या विध्वंस की भीषण ज्वाला, तो उसे क्या अधिकार है कि इतने प्राणियों की जान आफ़त में डाले। इसी मानसिक पराभय की दशा में उसके अन्तःकरण से निकला--ईश्वर मुझे प्रकाश दो, मुझे उबारो और वह रोने लगा।
सुबह का वक्त था। क़ैदियों की हाज़िरी हो गयी थी। अमर का मन कुछ शान्त था। यह प्रचण्ड आवेग शान्त हो गया था और आकाश में छायी हुई गर्द बैठ गयी थी। चीजें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी थीं। अमर मन में पिछली घटनाओं की आलोचना कर रहा था। कारण और कार्य के सूत्रों को मिलाने की चेष्टा करते हए सहसा उसे एक ठोकर-सी लगी--नैना का वह पत्र और सुखदा की गिरफ्तारी। इसी से तो वह आवेश में आ गया था। और समझौते का सुसाध्य मार्ग छोड़कर उस दुर्गम पथ की ओर झुक पड़ा था। इस ठोकर ने जैसे उसकी आँखें खोल दीं। मालूम हुआ, यह यश-लालसा का, व्यक्तिगत स्पर्धा का, सेवा के आवरण में छिपे हुए अहंकार का खेल था। इस अविचार और आवेश का परिणाम इसके सिवा और क्या होता।
अमर के समीप एक क़ैदी बैठा बान बट रहा था। अमर ने पूछा---तुम कैसे आये भाई?
उसने कुतूहल से देखकर कहा---पहले तुम बताओ।
'मुझे तो नाम की धुन थी।'
'मुझे धन की धुन थी।'
उसी वक्त जेलर में आकर अमर से कहा---तुम्हारा तबादला लखनऊ हो गया है। तुम्हारे बाप आये थे। तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हारी मुलाक़ात की तारीख न थी। साहब ने इन्कार कर दिया।
अमर ने आश्चर्य से पूछा---मेरे पिताजी यहाँ आये थे?
'हाँ-हाँ, इसमें ताज्जुब की क्या बात है। मि० सलीम भी उनके साथ थे।'
'इलाके की कुछ नई खबर?'
'तुम्हारे बाप ने शायद सलीम साहब को समझाकर गाँववालों से मेल