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अमर को अपने अन्दर आस्था की एक लहर-सी उठती हई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रद्धा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे-बड़े के मुँह से सुना करता; पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान-सी डाल दी थी।

जरा देर के बाद वह बोला---भैया, तुमसे चक्की चलवाना तो ऐसा ही है, जैसे कोई तलवार से चिड़िये को हलाल करे। तुम्हें अस्पताल में रखना चाहिए था। बीमारी में दवा से उतना फ़ायदा नहीं होता, जितना एक मीठी बात से हो जाता है। मेरे सामने वहाँ कई क़ैदी बीमार हुए पर एक भी अच्छा न हुआ। बात क्या है? दवा क़ैदी के सिर पर पटक दी जाती है, वह चाहे पिये चाहे फेंक दें।

अमर को उस काली-कलटी काया में स्वर्ण-जैसा हदय चमकता दीख पड़ा। मुसकराकर बोला---लेकिन दोनों काम साथ-साथ कैसे करूँगा?

'मैं अकेला चक्की चला लूँगा और पूरा आटा तुलवा दूँगा।'

'तब तो सारा सवाब मुझी को मिलेगा।'

काले खां ने साधु-भाव से कहा---भैया, कोई काम सवाव समझकर नहीं करना चाहिए। दिल को ऐसा बना लो कि सवाब में उसे वही मज़ा आये, जो गाने या खेलने में आता है। कोई काम इसलिए करना कि उससे नजात मिलेगी, रोज़गार है। फिर मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम खुद इन बातों को मुझसे ज्यादा समझते हो। मैं तो मरीज की तीमारदारी करने के लायक ही नहीं हूँ। मुझे बड़ी जल्द गुस्सा आ जाता है। कितना चाहता हूँ कि गुस्सा न आये पर जहाँ किसी ने दो-एक बार मेरी बात न मानी और मैं बिगड़ा।

वही डाकू, जिसे अमर ने एक दिन अधमता के पैरों के नीचे लोटते देखा था, आज दैवत्व के पद पर पहुँच गया था। उसकी आत्मा से मानो एक प्रकाश-सा निकलकर अमर के अन्तःकरण को आलोकित करने लगा।

उसने कहा---लेकिन यह तो बुरा मालूम होता है कि मेह्नत का काम तुम करो और मैं.....

काले खाँ ने बात काटी---भैया, इन बातों में क्या रखा है। तुम्हारा काम इस चक्की से कहीं कठिन होगा। तुम्हें किसी से बात करने तक की

कर्मभूमि
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