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बैठा उसके घावों को पानी से धो रहा था। और खून बन्द करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को जैसे आकान्त कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता? शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर बलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर निष्ठा ही का प्रसाद है।


कैदी भोजन करके लौटे। काले खाँ अब भी वहीं पड़ा हुआ था। सबों ने उसे उठाकर बैरक में पहुँचाया और डाक्टर को सूचना दी; पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की ज़रूरत न समझी । वहाँ और कोई दवा भी न थी। गर्म पानी तक न मयस्सर हो सका।

उस बैरक के कैदियों ने सारी रात बैठकर काटी। कई आदमी आमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, माल-साल भर की मीयाद और बढ़ जायगी। क्या परवाह! अमरकान्त शान्त प्रकृति का आदमी था; पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात भर उसके अन्दर पशु और मनुष्य में द्वन्द्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शान्त होती है। इंसान कितना ही हैवान हो जाय, उसमें कुछ-न-कुछ आदमीयत रहती ही है। आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से या पश्चात्ताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता; लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे या बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले खाँ की दशा जितनी ही खराब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचण्ड होती जाती थी।

एक डाके के क़ैदी ने कहा---खून पी जाऊँगा, खून! उसने समझा क्या है। यहीं न होगा, फाँसी हो जायगी।

अमरकान्त बोला---उस वक्त क्या समझे थे कि मारे ही डालता है!

चुपके-चुपके षड्यन्त्र रचा गया, आघातकारियों का चुनाव हुआ, उनका कार्यविधान निश्चय किया गया। सफ़ाई की दलील सोच निकाली गयी।

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कर्मभूमि