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लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गाँव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जाँच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ की उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावार का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गंजाइश न थी, दूसरे ख़र्चों का क्या जिक्र। ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर ऋण के नीचे न दबा हो। कालेज में उसने अर्थ-शास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहाँ के किसानों की हालत खराब है; पर अब ज्ञात हुआ कि पुस्तक-ज्ञान और प्रत्यक्ष व्यवहार में वही अन्तर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी, उसे असामियों से सहानुभूति होती जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुहताज हों, जिनके पास तन ढँकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों, जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाय। जब जिन्स मँहगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियाँ मिल जाती थीं। इस मन्दी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गयी है। जिनके लड़के पाँच-छः बरस की उम्र से ही मेहनत-मजूरी करने लगें, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चनते फिरें, उनसे पुरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुँह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से खून चूसना है।

परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफ़सरों के हर एक हुक्म की पाबन्दी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकान्त में बैठकर उसने विस्तार के साथ अपनी रिपोर्ट लिखी और मि० ग़ज़नवी के पास भेज दी। मि० ग़ज़नवी ने उसे तुरन्त लिखा--आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं वह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें। लेकिन फिर सोचा-- चलने में हरज ही क्या है। अगर वह मुझे क़ाय़ल कर दें, तब तो कोई बात नहीं; लेकिन अफ़सरों के भय से मैं अपनी

कर्मभूमी
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