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रिपोर्ट को कभी न दबने दूंगा। उसी दिन वह सन्ध्या-समय सदर जा पहुँचा।

मि० ग़जनवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा--मि० अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक़ खूब अदा किया। वह खुद शायद इतनी मुफ़स्सल रिपोर्ट न लिख सकते। लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं?

सलीम ने कहा--मेरा तो ऐसा ही ख्याल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह खुशामदी अहलकारों से मिलती है, जो रिआया का खून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाक़यात पर लिखी गयी है।

दोनों अफ़सरों में बहस होने लगी। ग़ज़नवी कहता था--हमारा काम केवल अफ़सरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी, हमें लगान वसूल करना चाहिये। प्रजा को कष्ट होता है तो हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें खुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है; लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता।

गज़नवी इस आज्ञा का विरोध करना अनीति ही नहीं, अधर्म समझता था। केवल जाब्ते की पाबन्दी से उसे सन्तोष न हो सकता था। वह इस हुक्म की तामील के लिए सब कुछ करने को तैयार था। सलीम का कहना था--हम सरकार के नौकर केवल इसलिए हैं कि प्रजा की सेवा कर सकें, उसे सुदशा की ओर ले जा सकें, उसकी उन्नति में सहायक हो सकें। यदि सरकार की किसी आज्ञा से इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा पड़ती हो, तो उमें उस आज्ञा को कदापि न मानना चाहिए।

ग़ज़नवी ने मुँह लंबा करके कहा--मुझे खौफ है कि गवर्नमेण्ट तुम्हारा यहाँ से तबादला कर देगी।

'तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं; लेकिन मेरी रिपोर्ट पर ग़ौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहाँ से हटाकर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफ़ा दे दूंगा।'

ग़जनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।

'आप गवर्नमेंट की दिक्क़तों का मुतलक अन्दाजा नहीं कर रहे हैं। अगर वह इतनी आसानी से दबने लगे, तो आप समझते हैं, रिआया कितनी

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कर्मभूमी