पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


शेर हो जायगी! जरा-जरा-सी बात पर तुफ़ान खड़े हो जायेंगे। और यह महज इस इलाके का मुआमला नहीं है, सारे मुल्क में यही तहरीक जारी है। अगर सरकार अस्सी फ़ीसदी काश्तकारों के साथ रिआयत करे, तो उसके लिए मुल्क का इन्तज़ाम करना दुश्वार हो जायगा!'

सलीम ने प्रश्न किया--गवर्नमेंट रिआया के लिए है, रिआया गवर्नमेंट के लिए नहीं। काश्तकारों पर जुल्म करके, उन्हें भूखों मारकर अगर गवर्नमेंट जिन्दा रहना चाहती है, तो कम-से-कम मैं अलग हो जाऊँगा। अगर मालियत में कमी आ रही है तो सरकार को अपना खर्च घटाना चाहिए। न कि रिआया पर सख्तियाँ की जाय।

ग़ज़नवी ने बहुत ऊँच-नीच सुझाया लेकिन सलीम पर कोई असर न हुआ। उसे डंडे से लगान वसूल करना किसी तरह मंजूर न था। आखिर ग़ज़नवी ने मजबूर होकर उसकी रिपोर्ट ऊपर भेज दी और एक ही सप्ताह के अंदर गवर्नमेंट ने उसे पृथक कर दिया। ऐसे भयंकर विद्रोही पर वह कैसे विश्वास करती।

जिस दिन उसने नये अफसर को चार्ज दिया और इलाके से बिदा होने लगा, उसके डेरे में चारों तरफ़ स्त्री-पुरुष का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जायें। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अपने अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वहीं अफ़सर जो कुछ दिन पहले अफ़सरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बात मालूम हुई।

आन्दोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बँध गये। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गाँव-गाँव दौड़ा करता था उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वही सलीम, जिसके खून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह खून बहाने को तैयार थी।

सन्ध्या हो गयी थी। सलीम और आत्मानन्द दिन भर काम करने के बाद लौटे थे कि एकाएक नये बंगाली सिविलियन मि० घोष पुलिस कर्म

कर्मभूमी
३६७