चारियों के साथ आ पहुँचे और गाँव-भर के मवेशियों को कुर्क करने की घोषणा कर दी। कुछ कसाई पहले ही से बुला लिये थे। वे सस्ता सौदा खरीदने को तैयार थे। दम के दम में कांस्टेबलों ने मवेशियों को खोल-खोलकर मदरसे के द्वार पर जमा कर दिया। गूदड़, भोला, अलगू सभी चौधरी गिरफ्तार हो चुके थे। फ़स्ल की कुर्की तो पहले ही हो चकी थी; मगर फ़स्ल में अभी क्या रखा था। इसलिए अब अधिकारियों ने मवेशियों को कुर्क करने का निश्चय किया था। उन्हें विश्वास था कि किसान मवेशियों की कुर्की देखकर भयभीत हो जायेंगे, और चाहे उन्हें कर्ज लेना पड़े, या स्त्रियों के गहने बेचने पड़ें, वे जानवरों को बचाने के लिए सब कुछ करने पर तैयार होंगे। जानवर किसान के दाहिने हाथ है।
किसानों ने यह घोषणा सुनी, तो छक्के छूट गये। वे समझे थे कि सरकार और जो चाहे करे, पर मवेशियों को कुर्क न करेगी। क्या वह किसानों की जड़ खोद कर फेंक देगी?
यह घोषणा सुनकर भी वे यही समझ रहे थे कि यह केवल धमकी है, लेकिन जब मवेशी मदरसे के सामने जमा कर दिये गये और कसाइयों ने उनकी देख-भाल शुरू की, तो सबों पर जैसे वज्रपात हो गया। अब समस्या उस सीमा तक पहुँच गयी थी, जब रक्त का आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है।
चिराग जलते-जलते जानवरों का बाजार लग गया। अधिकारियों ने इरादा किया है कि सारी रकम एकजाई वसूल करें। गाँववाले आपस में लड़-भिड़कर अपने-अपने लगान का फैसला कर लेंगे। इसकी अधिकारियों को कोई चिन्ता नहीं है।
सलीम ने आकर मि० घोष से कहा--आपको मालूम है कि मवेशियों को कुर्क करने का आपको मजाज़ नहीं है?
मि० घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया--यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रांति की नीति, शांति की नीति से भिन्न होनी स्वाभाविक है।
अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ, अहीरों के महाल में लाठी चल गयी। मि० घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीने चढ़ाई और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ़