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दौड़े। केवल सलीम यहाँ खड़ा रहा। जब एकान्त हो गया, तो उसने कसाइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला--क्यों भाई साहब, आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को खरीदकर यहाँ की गरीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बे-इन्साफ़ी कर रहे हैं?

सरगना का नाम तेग़ मुहम्मद था। नाटे कद का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान। ढीला कुरता, चारखाने की तहमद, गले में चाँदी की तावीज, हाथ में मोटा सोटा। नम्रता से बोला--साहब, मैं तो माल खरीदने आया हूँ। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है। चार पैसे का फ़ायदा जहाँ होता है वहाँ आदमी जाता ही है।

'लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की कुर्की किस सबब से हो रही है। रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।'

तेग़ मुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ--सरकार से जिसकी लड़ाई होगी उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।

'तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका अफ़सोस है। इसलाम ने हमेशा मज़लूमों की मदद की है। और तुम मज़लूमों की गरदन पर छुरी फेर रहे हो!'

'जब सरकार हमारी परवरिश कर रही है, तो हम उसके बदखाह नहीं बन सकते।'

'अगर सरकार तुम्हारी जायदाद छीनकर किसी गैर को दे दे, तो तुम्हें बुरा लगेगा, या नहीं?'

'सरकार से लड़ना हमारे मजहब के खिलाफ़ है।'

'यह क्यों नहीं कहते कि तुममें गैरत नहीं है।'

'आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फ़र्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?'

'अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि ग़रीबों का खून किया जाय, तो मैं काफ़िर हूँ।'

तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हँसी उड़ाने की चेष्टा की। पन्थों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त

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