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सलीम के पास खड़ी देख दौड़कर उसके केश पकड़ लिये और उसे द्वार की ओर खींचने लगे।

सलीम ने रास्ता रोककर कहा---छोड़ दो उसके बाल, वरना अच्छा न होगा। मैं तुम दोनों को भून कर रख दूँगा।

एक कांसटेबल ने क्रोध भरे स्वर में कहा- छोड़ कैसे दें। इसे ले जायँगे साहब के पास। इसने हमारे दो आदमियों को गँड़ासे से जख्मी कर दिया। दोनों पड़े तड़प रहे हैं।

'तुम इसके घर में क्यों गये थे?'

'गये थे मवेशियों को खोलने! यह गँड़ासा लेकर टूट पड़ी।'

युवती ने टोका--झूठ बोलते हो। तुमने मेरी बाँह नहीं पकड़ी थी?

सलीम ने लाल आँखों से सिपाही को देखा और धक्का देकर कहा--इसके बाल छोड़ दो!

'हम इसे साहब के पास ले जायँगे।'

'तुम इसे नहीं ले जा सकते।'

सिपाहियों ने सलीम को हाकिम के रूप में देखा था। उसकी मातहती कर चुके थे। उस रोब का कुछ अंश उनके दिल पर बाकी था। उसके साथ जबरदस्ती करने का साहस न हुआ। जाकर मि० घोष से फरियाद की। घोष बाबू सलीम से जलते थे। उनका ख्याल था कि सलीम ही इस आन्दोलन को चला रहा है और यदि उसे हटा दिया जाय तो चाहे आन्दोलन तुरन्त शांत न हो जाय, पर उसकी जड़ टूट जायगी। इसलिए सिपाहियों की रिपोर्ट सुनते ही तुरन्त घोड़ा बढ़ाकर सलीम के पास आ पहुँचे और अंग्रेज़ी में कानून बघारने लगे। सलीम को भी अंग्रेजी बोलने का अच्छा अभ्यास था। दोनों में पहले कानूनी मुबाहसा हुआ, फिर धार्मिक तत्व-निरूपण का नम्बर आया, इससे उतरकर दोनों दार्शनिक तर्क-वितर्क करने लगे, यहाँ तक कि अन्त में व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार होने लगी। इसके एक ही क्षण बाद शब्द ने क्रिया का रूप धारण किया। मिस्टर घोष ने हंटर चलाया, जिसने सलीम के चेहरे पर एक नीली-चौड़ी उभरी हुई रेखा छोड़ दी। आँखें बाल-बाल बच गयीं। सलीम भी जामे से बाहर हो गया। घोष की टाँग पकड़ कर जोर से खींचा। साहब घोड़े से नीचे गिर पड़े। सलीम उनकी छाती पर चढ़ बैठा

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कर्मभूमि