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और नाक पर घूंसा मारा। घोष बाबू मूर्छित हो गये। सिपाहियों ने दूसरा घूंसा पड़ने दिया। चार आदमियों ने दौड़कर सलीम को पकड़ लिया। चार आदमियों ने घोष को उठाया और होश में लाये।

अँधेरा हो गया था। आतंक ने सारे गाँव को पिशाच की भाँति छाप लिया था। लोग शोक से मौन और आतंक के भार से दबे, मरनेवालों की लाशें उठा रहे थे। किसी के मुँह से रोने की आवाज न निकलती थी। ज़ख्म ताजा था, इसलिये टीस न थी। रोना पराजय का लक्षण है। इन प्राणियों को विजय का गर्व था। रोकर अपनी दीनता प्रगट न करना चाहते थे। बच्चे भी जैसे रोना भूल गये थे।

मिस्टर घोष घोड़े पर सवार होकर डाकबँगले गये। सलीम एक सब इंसपेक्टर और कई कांसटेबलों के साथ एक लारी पर सदर भेज दिया गया। वह अहीरिन युवती भी उसी लारी पर भेजी गयी। पहर रात जाते-जाते चारों अर्थियां गंगा की ओर चलीं। सलोनी लाठी टेकती हई आगे-आगे गाती जाती थीं---

'सैयाँ मोरा रूठा जाय सखी री...'


काले खाँ के आत्म-समर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उसकी आत्मा में प्रकाश सा डाल दिया। काले खाँ की याद उसे एक क्षण के लिए भी न भूलती और किसी गुप्त शक्ति से उसे शांति और बल देती थी। वह उसकी वसीयत इस तरह पूरी करना चाहता था कि काले खाँ की आत्मा को स्वर्ग में शांति मिले। घड़ी रात से उठकर क़ैदियों का हाल-चाल पूछना और उनके घरों पर पत्र लिखकर रोगियों के लिए दवा-दारू का प्रबन्ध करना, उनकी शिकायतें सुनना और अधिकारियों से मिलकर शिकायतों को दूर करना यह सब उसके काम थे। और इस काम को वह इतनी विनय, इतनी नम्रता और सहृदयता से करता कि अमलों को भी उस पर सन्देह

कर्मभूमि
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