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की जगह विश्वास होता था। वह क़ैदियों का भी विश्वासपात्र था और अधिकारियों का भी।

अब तक वह एक प्रकार से उपयोगितावाद का उपासक था। इसी सिद्धान्त को मन में, यद्यपि अज्ञात रूप से, रखकर वह अपने कर्तव्य का निश्चय करता था। तत्व-चिन्तन का उसके जीवन में कोई स्थान न था। प्रत्यक्ष के नीचे जो अथाह गहराई है, वह उसके लिए कोई महत्व न रखती थी। उसने समझ रखा था, जहाँ गहराई है वहाँ शून्य के सिवा और कुछ नहीं। काले खाँ की मृत्यु ने जैसे उसका हाथ पकड़कर बल-पूर्वक उसे उस गहराई में डुबा दिया और उसमें डूबकर उसे अपना सारा जीवन किसी तृण के समान ऊपर तैरता हुआ दीख पड़ा, कभी लहरों के साथ आगे बढ़ता हुआ, कभी हवा के झोंकों से पीछे हटता हुआ, कभी भँवर में पड़कर चक्क खाता हुआ उसमें स्थिरता न थी, संयम न था, इच्छा न थी। उसकी सेवा में भी दंभ था, प्रमाद था, द्वेष था। उसने दंभ में सुखदा की उपेक्षा की। उस बिलासिनी के जीवन में जो सत्य था, उस तक पहुँचने का उद्योग न करके वह उसे त्याग बैठा। उद्योग करता भी क्या? तब उसे उद्योग का ज्ञान भी न था। प्रत्यक्ष ने उसकी भीतरवाली आँखों पर परदा डाल रखा था। इसी प्रमाद में उसने सकीना से प्रेम का स्वाँग किया। क्या उस उन्माद में लेशमात्र भी प्रेम की भावना थी? उस समय मालूम होता था, वह प्रेम में रत हो गया है, अपना सर्वस्व उस पर अर्पण किये देता है; पर आज उस प्रेम में लिप्सा के सिवा और उसे कुछ न दिखाई देता था। लिप्सा ही न थी, नीचता भी थी। उसने उस सरला रमणी की हीनावस्था से अपनी लिप्सा शान्त करनी चाही थी। फिर मुन्नी उसके जीवन में आयी, निराशाओं से भग्न, कामनाओं से भरी हुई। उस देवी से उसने कितना कपट व्यवहार किया। यह सत्य है कि उसके व्यवहार में कामुकता न थी। वह इसी विचार से अपने मन को समझा लिया करता था; लेकिन अब आत्म-निरीक्षण करने पर उसे स्पष्ट ज्ञात हो रहा था कि उस विनोद में भी, उस अनुराग में भी कामुकता का समावेश था। तो क्या वह वास्तव में कामुक है? इसका जो उत्तर उसने स्वयं अपने अन्तःकरण से पाया, वह किसी तरह श्रेयस्कर न था। उसने सूखदा को विलासिता का दोष लगाया; पर वह स्वयं उससे कहीं कुत्सित,

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कर्मभूमी