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कहीं विषय-पूर्ण विलासिता में लिप्त था। उसके मन में प्रबल इच्छा हई कि दोनों रमणियों के चरणों पर सिर रखकर रोये और कहे--देवियो, मैंने तुम्हारे साथ छल किया है, तुम्हें दगा दी है। मैं नीच हूँ, अधम हूँ, मुझे जो सजा चाहे दो, यह मस्तक तुम्हारे चरणों पर है।

पिता के प्रति भी अमरकान्त के मन में श्रद्धा का भाव उदय हुआ। जिसे उसने माया का दास और लोभ का कीड़ा समझ लिया था, जिसे वह किसी प्रकार के त्याग के अयोग्य समझता था, वह आज देवत्व के ऊँचे सिंहासन पर बैठा हुआ था। प्रत्यक्ष के नशे में उसने किसी न्यायी, दयालु ईश्वर की सत्ता को कभी स्वीकार न किया था; पर इन चमत्कारों को देखकर अब उसमें विश्वास और निष्ठा का जैसे एक सागर-सा उमड़ पड़ा था। उसे अपने छोटे-छोटे व्यवहारों में भी ईश्वरीय इच्छा का आभास होता था। जीवन में अब एक नया उत्साह था, जीवन अब उसके लिए अन्धकारमय न था। दैवी इच्छा में अन्धकार कहाँ?

सन्ध्या का समय था। अमरकान्त परेड में खड़ा था कि उसने सलीम को आते देखा। सलीम के चरित्र में जो कायापलट हुई थी, उसकी उसे खबर मिल चुकी थी; पर यहाँ तक नौबत पहुँच चुकी है, इसका उसे गुमान भी न था। वह दौड़कर सलीम के गले लिपट गया और बोला--तुम खूब आये दोस्त, अब मुझे यकीन आ गया कि ईश्वर हमारे साथ है। सुखदा भी तो यहीं है, जनाने जेल में, मुन्नी भी आ पहुँची। तुम्हारी कसर थी, वह पूरी हो गयीं। मैं दिल में समझ रहा था, तुम भी एक-न-एक दिन आओगे, पर इतनी जल्द आओगे, यह उम्मीद न थी। वहाँ की ताज़ी खबरें सुनाओ। कोई हंगामा तो नहीं हुआ?

सलीम ने व्यंग्य से कहा--जी नहीं, जरा भी नहीं। हंगामे की कोई बात भी हो। लोग मजे से खा रहे हैं और फाग गा रहे हैं। आप यहाँ आराम से बैठे हुए हैं न!

उसने थोड़े-से-शब्दों में वहाँ की सारी परिस्थिति कह सुनाई--मवेशियों का कुर्क किया जाना, क़साइयों का आना, अहीरों के मुहाल में गोलियों का चलना। घोष को पटककर मारने की कथा उसने विशेष रुचि से कही।

अमरकान्त का मुंह लटक गया--तुमने सरासर नादानी की।

कर्मभूमी
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