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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३८१

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'आप आज़ादी चाहते हैं। मगर उसकी कीमत नहीं देना चाहते।'

'आपने जिस चीज़ को आजादी की कीमत समझ रखा है, वह उसकी क़ीमत नहीं है। उसकी कीमत है--हक और सच्चाई पर जमे रहने की ताकत।'

सलीम उत्तेजित हो गया--यह फ़जूल की बात है। जिस चीज़ की बुनियाद जब्र पर है, उस पर हक और इन्साफ़ का कोई असर नहीं पड़ सकता।

अमर ने पूछा--क्या तुम इसे तसलीम नहीं करते कि दुनिया का इन्तज़ाम हक और इन्साफ़ पर कायम है और हरेक इन्सान में दिल की गहराइयों के अन्दर वह तार मौजूद है, जो कुरबानियों से झंकार उठता है?

सलीम ने कहा--नहीं, मैं इसे तसलीम नहीं करता। दुनिया का इन्तज़ाम खुदगरजी और जोर पर कायम है और ऐसे बहुत कम इन्सान हैं जिनके दिल की गहराइयों के अन्दर वह तार मौजद हो।

अमर ने मुसकराकर कहा--तुम तो सरकार के खैरख्वाह नौकर थे। तुम जेल में कैसे आ गये?

सलीम हँसा--तुम्हारे इश्क में।

'दादा को किसका इश्क था?'

'अपने बेटे का।'

'और सुखदा को?'

'अपने शौहर का।'

'और सकीना को? और मन्नी को? और इन सैकड़ों आदमियों को जो तरह-तरह की सख्तियाँ झेल रहे हैं?'

'अच्छा मान लिया कि कुछ लोगों के दिल की गहराइयों के अन्दर यह तार है; मगर ऐसे आदमी कितने हैं?'

'मैं कहता हूँ ऐसा आदमी नहीं जिसके अन्दर हमदर्दी का तार न हो। हाँ, किसी पर जल्द असर होता है, किसी पर देर में और कुछ ऐसे ग़रज़ के बन्दे भी हैं, जिन पर शायद कभी न हो।'

सलीम ने हारकर कहा--तो आखिर तुम चाहते क्या हो? लगान हम दे नहीं सकते। वह लोग कहते हैं, हम लेकर छोड़ेंगे। क्यों? अपना सब कुछ कुर्क हो जाने दें? अगर हम कुछ कहते हैं, तो हमारे ऊपर गोलियाँ चलती

कर्मभूमि
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