हैं। नहीं बोलते, तो तबाह हो जाते हैं। फिर दूसरा कौन-सा रास्ता है? हम जितना ही दबते जाते हैं, उतना वह लोग शेर होते जाते हैं। मरनेवाला बेशक दिलों में रहम पैदा कर सकता है; लेकिन मारनेवाला खौफ पैदा कर सकता है, जो रहम से कहीं ज्यादा असर डालनेवाली चीज़ है।
अमर ने इस प्रश्न पर महीनों विचार किया था। वह मानता था, संसार में पशुबल का प्रभुत्व है, किन्तु पशुबल को भी न्यायबल की शरण लेनी पड़ती है। आज बलवान से बलवान राष्ट्र में भी यह साहस नहीं है कि वह किसी निर्बल राष्ट्र पर खुल्लम-खुल्ला यह कहकर हमला करे कि 'हम तुम्हारे ऊपर राज करना चाहते हैं; इसलिये तुम हमारे अधीन हो जाओ।' उसे अपने पक्ष को न्याय-संगत दिखाने के लिये कोई न कोई बहाना तलाश करना पड़ता है। बोला--अगर तुम्हारा खयाल है कि खून और कत्ल से किसी कौम की नजात हो सकती है, तो तुम सख्त ग़लती पर हो। मैं इसे नजात नहीं कहता कि एक जमाअत के हाथों से ताकत निकल कर दूसरी जमाअत के हाथों में आ जाय और वह भी तलवार के ज़ोर में राज करे। मैं नजात उसे कहता हूँ कि इंसान में इंसानियत आ जाय। और इंसानियत की जब, बेइंसाफ़ी और खुदगरज़ी से दुश्मनी है।
सलीम को यह कथन तत्वहीन मालूम हुआ। मुँह बनाकर बोला--हुजूर को मालूम रहे कि दुनिया में फ़रिश्ते नहीं बसते, आदमी बसते हैं।
अमर ने शांत-शीतल हृदय से जवाब दिया--लेकिन तुम देख नहीं रहे हो कि हमारी इंसानियत सदियों तक खून और कत्ल में डूबे रहने के बाद अब सच्चे रास्ते पर आ रही है! उसमें यह ताकत कहाँ से आई? उसमें खुद वह दैवी शक्ति मौजूद है। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बड़ी से बड़ी फ़ौजी ताकत भी उसे कुचल नहीं सकती। जैसे सूखी जमीन में घास की जड़ें पड़ी रहती हैं और ऐसा मालूम होता है कि ज़मीन साफ़ हो गयी, लेकिन पानी के छींटे पड़ते ही वह जड़ें पनप उठती है, हरियाली से सारा मैदान लहराने लगता है, उसी तरह इस कलों और हथियारों और खुदगरजियों के जमाने में भी हममें वह दैवी शक्ति छिपी हुई अपना काम कर रही है। वह जमाना आ गया है, जब हक की आवाज तलवार की झंकार या तोप की गरज़ से ज्यादा कारगर होगी। बड़ी-बड़ी कौमें अपनी-अपनी फौजो और जहाजी