और इस शान्त, दीन प्रार्थना में उसकी ऐसी शान्ति मिली मानो उसके सामने कोई प्रकाश आ गया है और उसकी फैली हुई रोशनी में चिकना रास्ता साफ़ नज़र आ रहा है।
पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृद्धावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीरु और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। लेकिन ऐसे निर्लज्जों की अब भी कमी न थी, जो कहते थे--इसके लिए जीवन में अब क्या धरा है। मरना ही तो है। बाहर न मरी, जेल में मरी। हमें तो अभी बहुत दिन जीना है, बहुत कुछ करना है, हम आग में कैसे कूदें।
सन्ध्या का समय है। मजदूर अपने-अपने काम छोड़कर, छोटे दूकानदार अपनी-अपनी दुकानें बन्द करके, घटना-स्थल की ओर भागे चले जा रहे हैं। पठानिन अब वहाँ नहीं है, जेल पहुँच गयी होगी। हथियारबन्द पुलिस का पहरा है, कोई जलसा नहीं हो सकता, कोई भाषण नहीं हो सकता, बहुत से आदमियों का जमा होना भी खतरनाक है; पर इस समय कोई कुछ नहीं सोचता, किसी को कुछ दिखायी नहीं देता। सब किसी वेगमय प्रवाह में बहे जा रहे हैं। एक क्षण में सारा मैदान जन-समूह से भर गया।
सहसा लोगों ने देखा, एक आदमी ईंटों के एक ढेर पर खड़ा कुछ कह रहा है। चारों ओर से दौड़-दौड़ कर लोग वहाँ जमा हो गये--जन-समूह का एक विराट् सागर उमड़ा हुआ था। यह आदमी कौन है? लाला समरकान्त? जिसकी बहू जेल में है, जिसका लड़का जेल में है।
'अच्छा, यह लाला है! भगवान बुद्धि दे तो इस तरह। पाप से जो कुछ कमाया, वह पुन में लुटा रहे हैं।'
'है बड़ा भागवान।'
'भागवान न होता, तो बुढ़ापे में इतना जस कैसे कमाता!'
'सुनो, सुनो!'
'वह दिन आयेगा, जब इसी जगह गरीबों के घर बनेंगे और जहाँ हमारी माता गिरफ्तार हुई है, वहीं एक चौक बनेगा और उस चौक के बीच में माता की प्रतिमा खड़ी की जायगी। बोलो माता पठानिन की जय!'
दस हजार गलों से 'माता की जय!' की ध्वनि निकलती है, विकल,