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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३८५

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उत्तप्त, गंभीर, मानो ग़रीबों की हाय, संसार में कोई आश्रय न पाकर आकाशवासियों से फ़रियाद कर रही है।

'सुनो सुनो!'

'माता ने अपने बालकों के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। हमारे और आपके भी बालक हैं। हम और आप अपने बालकों के लिए क्या करना चाहते हैं, आज इसका निश्चय करना होगा।'

शोर मचता है, हड़ताल, हड़ताल!

'हाँ, हड़ताल कीजिए; मगर वह हड़ताल एक या दो दिन की न होगी, वह उस वक्त तक रहेगी, जब तक हमारे नगर के विधाता हमारी आवाज न सुनेंगे। हम गरीब हैं, दीन हैं, दुखी हैं; लेकिन बड़े आदमी अगर जरा शान्तचित्त होकर ध्यान करेंगे, तो उन्हें मालूम हो जायगा कि इन्हीं दीन-दुखी प्राणियों ही ने उन्हें बड़ा आदमी बना दिया है। ये बड़े-बड़े महल जान हथेली पर रखकर कौन बनाता है? इन कपड़े की मिलों में कौन काम करता है? प्रातःकाल द्वार पर दूध और मक्खन लेकर कौन आवाज देता है? मिठाइयाँ और फल लेकर कौन बड़े आदमियों के नाश्ते के समय पहँचता है? सफ़ाई कौन करता है? कपड़े कौन धोता है? सबेरे अखबार और चिट्ठियाँ लेकर कौन पहुँचाता है? शहर के तीन चौथाई आदमी एक चौथाई के लिए अपना रक्त जला रहे हैं? इसका प्रसाद यहीं मिलता है कि उन्हें रहने के लिए स्थान नहीं! एक बँगले के लिए कई बीघे जमीन चाहिए। हमारे बड़े आदमी साफ-सुथरी हवा और खुली हुई जगह चाहते हैं। उन्हें यह खबर नहीं है कि जहाँ असंख्य प्राणी दुर्गन्ध और अन्धकार में पड़े भयंकर रोगों से मर-मरकर रोग के कीड़े फैला रहे हों, वहाँ खुले हुए बँगले में रह कर भी वह सुरक्षित नहीं हैं। यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि शहर के छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी आदमी स्वस्थ रह सकें? अगर म्युनिसिपैलिटी इस प्रधान कर्तव्य को नहीं पूरा कर सकती हो उसे तोड़ देना चाहिए। रईसों और अमीरों की कोठियों के लिए, बग़ीचों के लिए, महलों के लिए क्यों इतनी उदारता से जमीन दे दी जाती है? इसलिए कि हमारी म्युनिसिपैलिटी गरीबों की जान का कोई मूल्य नहीं समझती। उसे रुपये चाहिए, इसलिए कि बड़े-बड़े अधिकारियों को बड़ी-बड़ी तलब दी जाय। वह शहर की

कर्मभूमि
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