विशाल भवनों से अलंकृत कर देना चाहती है, उसे स्वर्ग की तरह सुंदर बना देना चाहती है; पर जहाँ की अँधेरी दुर्गन्धपूर्ण गलियों में जनता पड़ी कराह रही हो, वहाँ इन विशाल भवनो से क्या होगा? यह तो वहीं बात है कि कोई देह के कोढ़ को रेशमी वस्त्रों से छिपाकर इठलाता फिरे। सज्जनों! अन्याय करना जितना बड़ा पाप है, उतना ही बड़ा पाप अन्याय सहना भी है। आज निश्चय कर लो कि तुम यह दुर्दशा न सहोगे। यह महल और बँगले नगर की दुर्बल देह पर छाले हैं, मस वृद्धि हैं। इन मस वृद्धों को काटकर फेंकना होगा। जिस ज़मीन पर हम खड़े है, यहाँ कम-से-कम दो हजार छोटे-छोटे सुन्दर घर बन सकते हैं, जिनमें कम-से-कम दस हजार प्राणी आराम से रह सकते हैं। मगर यह सारी ज़मीन चार-पाँच बँगलों के लिए बेची जा रही है। म्युनिसिपैलिटी को दस लाख रुपये मिल रहे हैं। इन्हें वह कैसे छोड़े? शहर के दस हजार मज़दूरों की जान दस लाख के बराबर भी नहीं!'
एकाएक पीछे के आदमियों ने शोर मचाया--पुलिस! पुलिस आ गयी!
कुछ लोग भागे, कुछ लोग सिमट कर और आगे बढ़ आये।
लाला समरकान्त बोले--भागो मत, भागो मत, पुलिस मुझे गिरफ्तार करेगी। मैं उसका अपराधी हूँ। और मैं ही क्यों, मेरा सारा घर उसका अपराधी है। मेरा लड़का जेल में है, मेरी बहू और पोता जेल में है। मेरे लिए अब जेल के सिवा और कहाँ ठिकाना है। मैं तो जाता हूँ। (पुलिस से) वहाँ ठहरिये साहब, मै खुद आ रहा हूँ। मैं तो जाता हूँ मगर यह कहे जाता हूँ कि अगर लौटकर मैने वहाँ अपने गरीब भाइयों के घरों की पाँतियाँ फूलों की भाँति लहलहाती न देखीं, तो यहीं मेरी चिता बनेगी।
लाला समरकान्त कूदकर ईंटों के टीले से नीचे आये और भीड़ चीरते हुए जाकर पुलिस कप्तान के पास खड़े हो गये। लारी तैयार थी, कप्तान ने उन्हें लारी में बैठाया। लारी चल दी।
'लाला समरकान्त की जय!' की गहरी, हार्दिक वेदना से भरी हुई ध्वनि किसी बँधुए पशु की भाँति तड़पती, छटपटाती ऊपर को उठी, मानो परवशता के बन्धन को तोड़कर निकल जाना चाहती हो।