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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३९०

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था, इसकी उसे ज़रा भी याद नहीं आती। उसी तरह इस समय तुम्हें अपना मन बनाना पड़ेगा। मैं यह दावा नहीं करता कि तुम्हारी जीत ही होगी। जीत भी हो सकती है, हार भी हो सकती है। जीत या हार से हमें प्रयोजन नहीं। भूखा बालक भूख से विकल होकर रोता है। वह यह नहीं सोचता कि रोने से उसे भोजन मिल ही जायगा। संभव है मां के पास पैसे न हों, या उसका जी अच्छा न हो; लेकिन बालक का स्वभाव है, कि भूख लगने पर रोये, इसी तरह हम भी रो रहे हैं। हम रोते-रोते थककर सो जायेंगे, या माता वात्सल्य से विवश होकर हमें भोजन दे देगी, यह कौन जानता है। हमारा किसी से बैर नहीं, हम तो समाज के सेवक हैं, हम वैर करना क्या जानें...

उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डाँट रहा था--जल्द लारी मँगवाओ। तुम बोलता था, अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहाँ से निकल आया?

थानेदार ने मुंह लटकाकर कहा--हुजूर वह डाक्टर साहब तो आज पहली ही बार आये हैं। इनकी तरफ तो हमारा गुमान भी नहीं था। कहिए तो गिरफ्तार कर के ताँगे पर ले चलूं।

'तांँगे पर! सब आदमी ताँगे को घेर लेगा। हमें फ़ायर करना पड़ेगा। जल्दी दौड़कर कोई टैक्सी लाओ।'

डाक्टर शांतिकुमार कह रहे थे---

'हमारा किसी से बैर नहीं है! जिस समाज में गरीबों के लिये स्थान नहीं, वह उस घर की तरह है, जिसकी बुनियाद न हो। कोई हलका-सा धक्का भी उसे जमीन पर गिरा सकता है। मैं अपने धनवान् और विद्वान् सामर्थ्यवान् भाइयों से पूछता हूँ, क्या यही न्याय है कि एक भाई तो बंँगले में रहे, दूसरे को झोपड़ा भी नसीब न हो? क्या तुम्हें अपने ही जैसे मनुष्यों को इस दुर्दशा में देखकर शर्म नहीं आती? तुम कहोगे, हमने बुद्धि-बल से धन कमाया है क्यों न उसका भोग करें। इस बुद्धि का नाम स्वार्थ-बुद्धि है, और जब समाज का संचालन स्वार्थ-बुद्धि के हाथ में आ जाता है, न्याय-बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है। गरमी बढ़ जाती है, तो तुरन्त ही आँधी आती है! मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है जो समाज को स्थिर रख सकती है। थोड़े-से धनवानों का हरगिज़ यह अधिकार

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कर्मभूमि