नहीं है, कि वे जनता की ईश्वरदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण करें। यह विशाल जन समह उसी अनधिकार, उसी अन्याय का रोषमय रुदन है। अगर धनवानों की आँखें अब भी नहीं खुलती, तो उन्हें पछताना पड़ेगा। यह जागृति का युग है। जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं...'
इतने में टैक्सी आ गयी। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांसटेबलों के साथ समूह की तरफ चला।
थानेदार ने पुकार कर कहा--डाक्टर साहब आपका भाषण तो समाप्त हो चुका होगा। अब चले आइये हमें क्यों वहाँ आना पड़े।
शांतिकुंमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा---मैं अपनी खुशी से तो गिरफ्तार होने न आऊँगा, आप ज़बरदस्ती कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया—
'हमारे धनवानों को किसका बल है? पुलिस का। हम पुलिस ही से पुछते है, अपने कांसटेबल भाइयों से हमारा सवाल है,क्या तुम भी ग़रीब नहीं हो? क्या तुम और तुम्हारे बाल-बच्चे सड़े हुए, अँधेरे, दुर्गन्ध और रोग से भरे हुए बिलों में नहीं रहते! लेकिन यह ज़माने की खूबी है कि तुम अन्याय की रक्षा करने के लिए, अपने ही बाल-बच्चों का गला घोंटने के लिए तैयार खड़े हो...'
कप्तान ने भीड़ के अन्दर जाकर शांतिकुमार का हाथ पकड़ लिया और उन्हें साथ लिये हुए लौटा। सहसा नैना सामने से आकर खड़ी हो गयी।
शांतिकुमार ने चौंककर पूछा---तुम किधर से नैना? सेठ जी और देवी जी तो चल दिये। अब मेरी बारी है।
नैना मुसकराकर बोली--और आपके बाद मेरी।
'नहीं, कहीं ऐसा अनर्थ न करना। सब कुछ तुम्हारे ऊपर है।'
नैना ने कुछ जवाब न दिया। कप्तान डाक्टर को लिये हए आगे बढ़ गया। उधर सभा में शोर मचा हुआ था। अब उनका क्या कर्त्तव्य है, इसका निश्चय वह लोग न कर पाते थे। उनकी दशा पिघली हुई धातु की सी थी। उसे जिस तरफ चाहें मोड़ सकते हैं। कोई भी चलता हुआ आदमी उनका नेता बनकर उन्हें जिस तरफ चाहे ले जा सकता था--सबसे ज्यादा आसानी