बहूजी आप इतना ही कह दीजियेगा---नैना देवी चली गयीं; पर जब तक सकीना ज़िन्दा है, आप उसे नैना ही समझते रहिये।
सुखदा ने निर्दय मुसकान के साथ कहा--उनका तो तुमसे दूसरा रिश्ता हो चुका है!
सकीना ने जैसे इस वार को काटा--तब उन्हें औरत की ज़रूरत थी, आज बहन की ज़रूरत है।
सूखदा तीव्र स्वर में बोली--मैं तो तब भी ज़िन्दा थी।
सकीना ने देखा, जिस अवसर से वह काँपती रहती थी, यह सिर पर आ ही पहुँचा। अब उसे अपनी सफ़ाई देने के सिवा और कोई मार्ग न था।
उसने पूछा--मैं कुछ कहूँ, बुरा तो न मानियेगा?
'बिल्कुल नहीं।'
'तो सुनिये--तब आपने उन्हें घर से निकाल दिया था। आप पूरब को जाती थीं वह पच्छिम को जाते थे। अब आप और वह एक दिल हैं, एक जान हैं। जिन बातों की उनकी निगाह में सबसे ज़्यादा क़दर थी वह आपने सब पूरी कर दिखायीं। वह जो आपको पा जायँ, तो आपके क़दमों का बोसा ले लें।'
सुखदा को इस कथन में वही आनन्द आया, जो एक कवि की दूसरे कवि की दाद पाकर आता है। उसके दिल में जो संशय था, वह कैसे आप ही आप उसके हृदय से टपक पड़ा--यह तो तुम्हारा खयाल है सकीना! उनके दिल में क्या है, यह कौन जानता है। मरदों पर विश्वास करना मैंने छोड़ दिया! अब वह चाहे मेरी इज्जत करने लगें--इज्ज़त तो तब भी कम न करते थे--लेकिन तुम्हें वह दिल से निकाल सकते हैं, इसमें मुझे शक है। तुम्हारी शादी मियाँ सलीम से हो ही जायगी; लेकिन दिल में वह तुम्हारी उपासना करते रहेंगे।
सकीना की मुद्रा गंभीर हो गयी। वह भयभीत हो गयी। जैसे कोई शत्रु उसे दम देकर उसके गले में फन्दा डालने जा रहा हो। उसने मानों गले को बचाकर कहा--तुम उनके साथ फिर अन्याय कर रही हो बहनजी! वह उन आदमियों में नहीं हैं, जो दुनिया के डर से कोई काम करें। उन्होंने खुद सलीम से मेरी ख़त किताबत करवाई। मैं उनकी