मन्शा समझ गयी। मुझे मालूम हो गया, तुमने अपने रूठे हुए देवता को मना लिया। मैं दिल में काँपी जा रही थी कि मुझ जैसी गँवारिन उन्हें कैसे खुश रख सकेगी। मेरी हालत उस कँगले की-सी हो रही थी, जो खज़ाना पाकर बौखला गया हो कि अपनी झोपड़ी में उसे कहाँ रखे, कैसे उसकी हिफ़ाजत करे। उनकी यह मन्शा समझकर मेरे दिल का बोझ हलका हो गया। देवता तो पूजा करने की चीज़ है। वह हमारे घर में आ जाय, तो उसे कहाँ बैठायें, कहाँ सुलायें, क्या खिलायें। मन्दिर में जाकर हम एक छन के लिए कितने दीनदार, कितने परहेज़गार बन जाते हैं। हमारे घर में आकर यदि देवता हमारा असली रूप देखे, तो शायद हमसे नफरत करने लगे। सलीम को मैं सँभाल सकती हूँ। वह इसी दुनिया के आदमी हैं और मैं उन्हें समझ सकती हूँ।
उसी वक्त जनाने वार्ड के द्वार खुले और तीन कैदी अन्दर दाखिल हुए। तीनों घुटनों तक जाँघिए और आधी बाँह के ऊँचे कुरते पहने हुए थे। एक के कन्धे पर बाँस की सीढ़ी थी, एक के सिर पर चूने का बोरा। तीसरा चूने की हड़ियाँ, कूंची और बालटियाँ लिये हुए था। आज से जनाने जेल की पुताई होगी। सालाना सफाई और मरम्मत के दिन आ गये हैं।
सकीना ने कैदियों को देखते ही उछलकर कहा---यह तो जैसे बाबूजी हैं, डोल और रस्सी लिये हुए। सलीम सीढ़ी उठाये हुए हैं।
यह कहते हुए उसने बालक को गोद में उठा लिया और उसे भेंच-भेंचकर प्यार करती हुई द्वार की ओर लपकी। बार-बार उसका मुँह चूमती और कहती जाती थी---चलो, तुम्हारे बाबूजी आये हैं।
सुखदा भी आ रही थी; पर मन्द गति से। उसे रोना आ रहा था। आज इतने दिनों के बाद मुलाकात भी हुई, तो इस दशा में!
सहसा मुन्नी एक ओर से दौड़ती आयी और अमर के हाथ से डोल और रस्सी छीनती हुई बोली---अरे! यह तुम्हारा क्या हाल है, लाला, आधे भी नहीं रहे! चलो आराम से बैठो, में पानी खींचे देती हूँ।
अमर ने डोल को मजबूत पकड़कर कहा---नहीं, नहीं तुमसे न बनेगा। छोड़ दो डोल। जेलर देखेगा, तो मेरे ऊपर डाँट पड़ेगी।