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मन्नी ने डोल छीनकर कहा--मैं जेलर को जवाब दे लूँगी। ऐसे ही थे तुम वहाँ?

एक तरफ से सकीना और सुखदा, दूसरी ओर से पठानिन और रेणुका आ पहुँची; पर किसी के मुँह से बात न निकलती थी। सबों की आँखें सजल थीं और गले भरे हुए। चली थी हर्ष के आवेश में, पर हर पग के साथ मानो जल गहरा होते-होते अन्त को सिरों पर आ पहुँचा।

अमर इन देवियों को देखकर विस्मय भरे गर्व से फूल उठा। उनके सामने वह कितना तुच्छ था, किन शब्दों में उनकी स्तुति करे, उनको भेंट क्या चढ़ाये। उसके आशावादी नेत्रों में भी राष्ट्र का भविष्य कभी इतना उज्ज्वल न था। उसके सिर से पाँव तक स्वदेशाभिमान की एक बिजली-सी दौड़ गयी। भक्ति के आँसू आँखों में छलक आये।

औरों की जेल-यात्रा का समाचार तो वह सुन चुका था; पर रेणका को वहाँ देखकर वह जैसे उन्मत्त होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा।

रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा--आज चलते-चलाते तुमसे खूब भेंट हो गयी बेटा। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना सफल करे। मुझे तो आये आज पाँचवाँ ही दिन है; पर हमारी रिहाई का हुक्म आ गया। नैना ने हमें मुक्त कर दिया।

अमर ने धड़कते हुए हृदय से कहा---तो क्या वह भी यहाँ आयी है? उसके घरवाले तो बहुत बिगड़े होंगे।

सभी देवियाँ रो पड़ीं। इस प्रश्न ने जैसे उनके हृदय को मसोस लिया। अमर ने चकित नेत्रों से हरेक के मुँह की ओर देखा। एक अनिष्ट-शंका से उसकी सारी देह थरथरा उठी। इन चेहरों पर विजय-दीप्ति नहीं, शोक की छाया अंकित थी। अधीर होकर बोला--कहाँ है नैना, यहाँ क्यों नहीं आती? उसका जी अच्छा नहीं है क्या?

रेणका ने हृदय को सँभालकर कहा---नैना को आकर चौक में देखना बेटा, जहाँ उसकी मूर्ति स्थापित होगी। नैना आज तुम्हारे नगर की रानी है। हरेक हृदय में तुम उसे श्रद्धा के सिंहासन पर बैठी पाओगे।

अमर पर जैसे वज्रपात हो गया। वह भूमि पर बैठ गया और दोनों हाथों से मुंह ढाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। उसे जान पड़ा, अब संसार

कर्मभूमि
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