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में उसका रहना वृथा है। नैना स्वर्ग की विभूतियों में जगमगाती, मानो उसे खड़ी बुला रही थी।

रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा---बेटा, उसके लिए क्या रोते हो, वह मरी नहीं, अमर हो गयी। उसी के प्राणों से इस यज्ञ की पूर्णाहुति हुई है।

सलीम ने गला साफ करके पूछा--बात क्या हुई? क्या कोई गोली लग गयी?

रेणुका ने इस भाव का तिरस्कार करके कहा--नहीं भैया, गोली क्या चलती, किसी से लड़ाई थी? जिस वक्त वह मैदान से जलूस के साथ म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर की ओर चली, तो एक लाख आदमी से कम न थे। उसी वक्त मनीराम ने आकर उस पर गोली चला दी। वहीं गिर पड़ी। कुछ मुँह से कहने न पाई। रात-दिन भैया ही में उसके प्राण लगे रहते थे। वह तो स्वर्ग गयी। हाँ, हम लोगों को रोने के लिए छोड़ गयी।

अमर को ज्यों-ज्यों नैना के जीवन की बातें याद आती थीं, उसके मन में जैसे विषाद का एक नया सोता खुल जाता था। हाय! उस देवी के साथ उसने एक भी कर्तव्य का पालन न किया। यह सोच-सोचकर उसका जी कचोट उठता था। वह अगर घर छोड़कर न भागा होता, तो लालाजी क्यों उसे उस लोभी मनीराम के गले बाँध देते। और क्यों उसका यह करुणाजनक अन्त होता!

लेकिन सहसा इस शोक सागर में डूबते हए उसे ईश्वरीय विधान की नौका-सी मिल गयी। ईश्वरीय प्रेरणा के बिना किसी में सेवा का ऐसा अनुराग कैसे आ सकता है। जीवन का इससे शुभ उपयोग और क्या हो सकता है। गृहस्थी के संचय में, स्वार्थ की उपासना में तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कारवालों ही को प्राप्त होता है। अमर की लोकमग्न आत्मा ने अपने चारों ओर ईश्वरीय दया का चमत्कार देखा--व्यापक, असीम, अनन्त।

सलीम ने फिर पूछा--बेचारे लालाजी को तो बड़ा रंज हुआ होगा?

रेणुका ने गर्व से कहा--वह तो पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे बेटा, और शांतिकुमार भी।

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कर्मभूमि