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अमर को जान पड़ा, उसकी आँखों की ज्योति दुगुनी हो गयी है, उसकी भुजाओं में चौगुना बल आ गया। उसने वहीं ईश्वर के चरणों में सिर झुका दिया और अब उसकी आँखों से जो मोती गिरे वह विषाद के नहीं उल्लास और गर्व के थे। उसके हृदय में ईश्वर की ऐसी निष्ठा का उदय हुआ, मानो वह कुछ नहीं है, जो कुछ है, ईश्वर की इच्छा है, जो कुछ करता है, वही करता है, वही मंगल मूल और सिद्धियों का दाता है। सकीना और मुन्नी दोनों उसके सामने खड़ी थीं। उनकी छवि को देखकर उनके मन में वासना की जो आँधी-सी चलने लगती थी, उसी छवि में आज उसने निर्मल प्रेम के दर्शन पाये, जो आत्मा के विकारों को शान्त कर देता है, उसे सत्य प्रकाश से भर देता है। उसमें लालसा की जगह उत्सर्ग, भोग की जगह तप का संस्कार कर देता है। उसे ऐसा आभास हुआ, मानो वह उपासक है और ये रमणियाँ उसकी उपास्य देवियाँ हैं। उनकी पदरज को माथे पर लगाना ही मानो उसके जीवन की सार्थकता है।

रेणुका ने बालक को सकीना की गोद से लेकर अमर की ओर उठाते हुए कहा--यही तेरे बाबूजी हैं बेटा, इनके पास जा।

बालक ने अमरकान्त का वह कैदी का बाना देखा, तो चिल्लाकर रेणुका से चिपट गया। फिर उसकी गोद में मुँह छिपाये कनखियों से उसे देखने लगा, मानो मेल तो करना चाहता है, पर भय यह है कि कहीं यह सिपाही पकड़ न ले; क्योंकि इस वेश के आदमी को अपना बाबूजी समझने में उसके मन को सन्देह हो रहा था।

सूखदा को बालक पर क्रोध आया। कितना डरपोक है, मानो इसे वह खा जाते। उसकी इच्छा हो रही थी कि यह भीड़ टल जाय, तो एकान्त में अमर से मन की दो चार बातें कर ले। फिर न जाने कब भेंट हो।

अमर ने सुखदा की ओर ताकते हए कहा---आप लोग इस मैदान में भी हमसे बाजी ले गयीं। आप लोगों ने जिस काम का बीड़ा उठाया, उसे पूरा कर दिखाया। हम तो अभी जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े हैं। सफलता के दर्शन होंगे भी या नहीं, कौन जाने। जो थोड़ा बहुत आन्दोलन यहाँ हुआ है, उसका गौरव भी मुन्नी बहन और सकीना बहन को है। इन दोनों बहनों के हृदय में देश के लिए जो अनुराग और कर्तव्य के लिए जो उत्सर्ग है, उसने

कर्मभूमि
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