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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४०८

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यह जेल तो मेरे लिए स्वर्ग हो गया सुखदा। जितनी तपस्या की थी, उससे कहीं बढ़कर वरदान पाया। अगर हृदय दिखाना संभव होता तो दिखाता कि मुझे तुम्हारी कितनी याद आती थी। बार-बार अपनी ग़लतियों पर पछताता था।

सुखदा ने बात काटी---अच्छा, अब तुमने बातें बनाने की कला भी सीख ली। तुम्हारे हृदय का हाल कुछ मुझे भी मालूम है। उसमें नीचे से ऊपर तक क्रोध ही क्रोध है। क्षमा या दया का कहीं नाम भी नहीं। मैं विलासिनी सही; पर उस अपराध का इतना कठोर दण्ड और जब यह जानते थे कि वह मेरा दोष नहीं, मेरे संस्कारों का दोष था।

अमर ने लज्जित होकर कहा---यह तुम्हारा अन्याय है सुखदा!

सूखदा ने उसकी ठोड़ी को ऊपर उठाते हए कहा---मेरी ओर देखो। मेरा ही अन्याय है! तुम न्याय के पुतले हो? तुमने सैकड़ों पत्र भेजे, मैंने एक का भी जवाब न दिया, क्यों! मैं कहती हूँ, तुम्हें इतना क्रोध आया कैसे? आदमी को जानवरों से भी प्रीति हो जाती है। मैं तो फिर भी आदमी थी। रूठ कर ऐसा भुला दिया मानो मैं मर गयी।

अमर इस आक्षेप का कोई जवाब न दे सकने पर भी बोला--तुमने भी तो कोई पत्र नहीं लिखा और में लिखता भी तो तुम जबाब देतीं? दिल से कहना।

'तो तुम मुझे सबक़ देना चाहते थे?'

अमरकान्त ने जल्दी से इस आक्षेप को दूर किया--नहीं, यह बात नहीं है, सुखदा! हज़ारों बार इच्छा हुई कि तुम्हें पत्र लिखूं लेकिन...

सुखदा ने वाक्य को पूरा किया---लेकिन भय यह था कि शायद मैं तुम्हारे पत्रों को हाथ न लगाती। अगर नारी-हृदय का तुम्हें यही ज्ञान है, तो मैं कहूँगी, तुमने उसे बिल्कुल नहीं समझा।

अमर ने अपनी हार स्वीकार की---तो मैंने यह दावा कब किया था कि में नारी-हृदय का पारखी हूँ।

वह यह दावा न करे, लेकिन सुखदा ने तो धारणा कर ली थी कि उसे यह दावा है। मीठे तिरस्कार के स्वर में बोली--पुरुष की बहादुरी तो इसमें नहीं है कि स्त्री को अपने पैरों पर गिराये। मैंने अगर तुम्हें पत्र न

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कर्मभूमि