पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

लिखा, तो इसका यह कारण था कि मैं समझती थी, तुमने मेरे साथ अन्याय किया है, मेरा अपमान किया है। लेकिन इन बातों को जाने दो; यह बताओ, जीत किसकी हुई, मेरी या तुम्हारी?

अमर ने कहा---मेरी।

'और मैं कहती हूँ---मेरी।'

'कैसे?'

'तुमने विद्रोह किया था, मैंने दमन से ठीक कर दिया।'

'नहीं तुमने मेरी माँगें पूरी कर दीं।'

उसी वक्त सेठ धनीराम जेल के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ अन्दर दाखिल हुए। लोग कुतूहल से उन लोगों को ओर देखने लगे। सेठ इतने दुर्बल हो गये थे कि बड़ी मुश्किल से लकड़ी के सहारे चल रहे थे। पग पग पर खाँसते भी जाते थे।

अमर ने आगे बढ़कर सेठजी को प्रणाम किया। उन्हें देखते ही उसके मन में उनकी ओर से जो ग़ुबार था, वह जैसे धुल गया।

सेठजी ने उसे आशीर्वाद देकर कहा---मुझे यहाँ देखकर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा बेटा? तुम समझते होगे, बुड्ढ़ा अभी तक जीता जा रहा है, इसे मौत क्यों नहीं आती। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे संसार ने सदा अविश्वास की आँखों से देखा। मैंने जो कुछ किया, उस पर स्वार्थ का आक्षेप लगा। मुझमें भी कुछ सच्चाई है, कुछ मनुष्यता है, इसे किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। संसार की आँखों में मैं कोरा पशु हूँ, इसीलिए कि मैं समझता हूँ, हरेक काम का समय होता है। कच्चा फल पाल में डाल देने से पकता नहीं। तभी पकता है, जब पकने के लायक हो जाता है। जब मैं अपने चारों ओर फैले हुए अन्धकार को देखता हूँ, तो मुझे सूर्योदय के सिवाय उसके हटाने का कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता। किसी दफ्त़र में जाओ, बिना रिश्वत के काम नहीं चल सकता। किसी घर में जाओ, वहाँ द्वेष का राज्य देखोगे। स्वार्थ, अज्ञान, आलस्य ने हमें पकड़ रखा है। इसे ईश्वर की इच्छा ही दूर कर सकती है। हम अपनी पुरानी संस्कृति को भूल बैठे हैं। वह आत्मा-प्रधान संस्कृति थी। जब तक ईश्वर की दया न होगी, उसका पुनर्विकास न होगा और जब तक उसका पुनर्विकास न होगा, हम लोग

कर्मभूमि
४०५