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कुछ नहीं कर सकते। इस प्रकार के आन्दोलनों में मेरा विश्वास नहीं है। इनसे प्रेम की जगह द्वेष बढ़ता है। जब तक रोग का ठीक निदान न होगा, उसकी ठीक औषधि न होगी, केवल बाहरी टीम-टाम से रोग का नाश होगा।

अमर ने इस प्रलाप पर उपेक्षा-भाव से मुसकराकर कहा—--तो फिर हम लोग उस शुभ समय के इन्तजार में हाथ धरे बैठे रहें?

एक वार्डर दौड़कर कई कुरसियाँ लाया। सेठ जी और जेल के दो अधिकारी बैठे। सेठजी ने पान निकालकर खाया और इतनी देर में इस प्रश्न का जवाब भी सोचते जाते थे। तब प्रसन्नमुख होकर बोले--—नहीं, यह मैं नहीं कहता। यह आलसियों और अकर्मण्यों का काम है। हमें प्रजा में जाग्रति और संस्कार उत्पन्न करने की चेष्टा करते रहना चाहिए। हमारी पूरी शक्ति जाति की आत्मा को जगाने में लगनी चाहिए। मैं इसे कभी नहीं मान सकता कि आज आधी मालगुजारी होते ही प्रजा सुख के शिखर पर पहुँच जायेगी। उसमें सामाजिक और मानसिक कितने ही दोष हैं कि आधी तो क्या, पूरी मालगुजारी भी छोड़ दी जाय, तब भी उसकी दशा में कोई अन्तर न होगा। फिर मैं यह भी स्वीकार न करूँगा कि फ़रियाद करने की जो विधि सोची गयी और जिसका व्यवहार किया गया, उसके सिवा कोई दूसरी विधि न थी।

अमर ने उत्तेजित होकर कहा---हमने अन्त तक हाथ-पाँव जोड़े, आखिर मजबूर होकर हमें यह आन्दोलन शुरू करना पड़ा।

लेकिन एक क्षण में वह नम्र होकर बोला--संभव है हमसे ग़लती हुई हो; लेकिन उस वक्त हमें यही सूझ पड़ा।

सेठजी ने शान्ति-पूर्वक कहा---हाँ, ग़लती हुई और बहुत बड़ी गलती हुई। सैकड़ों घर बरबाद हो जाने के सिवा और कोई नतीजा न निकला। इस विषय पर गवर्नर साहब से मेरी बातचीत हुई है और वह भी यही कहते हैं कि ऐसे जटिल मुआमले में विचार से काम नहीं लिया गया। तुम तो जानते हो, उनसे मेरी कितनी बेतकल्लुफी है। नैना की मृत्यु पर उन्होंने खुद मातमपुरसी का तार दिया था। तुम्हें शायद मालूम न हो, गवर्नर साहब ने खुद उस इलाके का दौरा किया और वहाँ के निवासियों से मिले। पहले तो कोई उनके पास आता ही न था। साहब बहत हँस रहे थे कि ऐसी सूखी

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कर्मभूमि