अकड़ कहीं नहीं देखी। देह पर साबित कपड़े नहीं है; लेकिन मिजाज यह है कि हमें किसी से कुछ नहीं कहना है। बड़ी मुश्किल से थोड़े-से आदमी जमा हुए। जब साहब ने उन्हें तसल्ली दी और कहा--—तुम लोग डरो मत, हम तुम्हारे साथ अन्याय नहीं चाहते, तब बेचारे रोने लगे। साहब इस झगड़े को जल्द तय कर देना चाहते हैं। और इसलिए उनकी आज्ञा है कि सारे कैदी छोड़ दिये जायँ और एक कमेटी करके निश्चय कर लिया जाय कि हम क्या करना है। उस कमेटी में तुम और तम्हारे दोस्त मियाँ सलीम तो होंगे ही, तीन आदमियों को चुनने का तुम्हें और अधिकार होगा। सरकार की ओर से केवल दो आदमी होंगे। बस मैं यही सूचना देने आया हूँ। मुझे आशा है, तुम्हें इसमें कोई आपत्ति न होगी।
सकीना और मुन्नी में कनफुसकियाँ होने लगीं। सलीम के चेहरे पर भी रौनक आ गयी; पर अमर उसी तरह शांत, विचारों में मग्न खड़ा रहा।
सलीम ने उत्सुकता से पूछा—--हमें अखतियार होगा, जिसे चाहें चुनें?
'पूरा।'
'उस कमेटी का फैसला अन्तिम होगा?'
सेठजी ने हिचकिचाकर कहा--—मेरा तो ऐसा ही खयाल है।
'हमें आपके खयाल की जरूरत नहीं। हमें इसकी तहरीर मिलनी चाहिए।'
'और तहरीर न मिले?'
'तो हमें मुआहदा मंजूर नहीं ?'
'नतीजा यह होगा कि यहीं पड़े रहोगे और रिआया तबाह होती रहेगी।'
'जो कुछ भी हो।'
'तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है, लेकिन ग़रीबों पर क्या बीत रही है, वह सोचो।'
'खूब सोच लिया है।'
'नहीं सोचा।'
'सोच लिया है।'
'अच्छी तरह सोच लो।'
'खूब अच्छी तरह सोच लिया है।'