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अमर दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़ा। पिता के प्रति आज उसके हृदय में असीम श्रद्धा थी। नैना मानो आँखों में आँसू भरे उससे कह रही थी—भैया, दादा को कभी दुखी न करना, उनकी रीति-नीति तुम्हें बुरी भी लगे, तो भी मुँह मत खोलना। वह उनके चरणों को आँसुओं से धो रहा था, और सेठजी उसके ऊपर मोतियों की वर्षा कर रहे थे।

सलीम भी पिता के गले से लिपट गया। हाफिजजी ने आशीर्वाद देकर कहा—खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हारी कुरबानियाँ सुफल हुई। कहाँ है सकीना, उसे भी देखकर कलेजा ठंडा कर लूँ।

सकीना सिर झुकाये आयी और उन्हें सलाम करके खड़ी हो गयी। हाफिजजी ने उसे एक नज़र देखकर समरकान्त से कहा—सलीम का इन्तखाब तो बुरा नहीं मालूम होता।

समरकान्त मुसकराकर बोले—सूरत के साथ दहेज में देवियों के जौहर भी हैं।

आनन्द के अवसर पर हम अपने दुःखों को भूल जाते हैं। हाफिज़ जी को सलीम के सिविल सर्विस से अलग होने का, समरकान्त को नैना की मृत्यु का और सेठ धनीराम को पुत्र-शोक का रंज कुछ कम न था; पर इस समय सभी प्रसन्न थे। किसी संग्राम में विजय पाने के बाद योद्धागण मरनेबालों के नाम को रोने नहीं बैठते। उस वक्त तो सभी उत्सव मनाते हैं। शादियाने बजते हैं, महफिलें जमती हैं, बधाइयाँ दी जाती है। रोने के लिए हम एकान्त ढूंढ़ते हैं, हँसने के लिए अनेकांत।

मगर सब प्रसन्न थे। केवल अमरकान्त मन मारे हुए उदास था।

सब लोग स्टेशन पर पहुंचे, तो सुखदा ने उससे पूछा-तुम उदास क्यों हो?

अमर ने जैसे जागकर कहा——मैं! उदास तो नहीं हूँ।

'उदासी भी कहीं छिपाने से छिपती है?'

अमर ने गंभीर स्वर में कहा-उदास नहीं है, केवल यह सोच रहा हूँ, कि मेरे हाथों इतनी जान-माल की क्षति अकारण ही हुई। जिस नीति से अब काम लिया गया, क्या उस नीति से काम न लिया जा सकता था? उस जिम्मेदारी का भार मुझे दबाये डालता है।

कर्मभूमि
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