सुखदा ने शान्त कोमल स्वर में कहा-मैं तो समझती हूँ, जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। जो काम अच्छी नीयत से किया जाता है, वह ईश्वरार्थ होता है। नतीजा कुछ भी हो। यज्ञ का अगर कुछ फल न मिले, तो भी यज्ञ का पुण्य तो मिलता ही है। लेकिन मैं तो इस निर्णय को विजय समझती हूँ, ऐसी विजय जो अभूतपूर्व है। हमें जो कुछ बलिदान करना पड़ा, वह उस जाग्रति के देखते हुए कुछ भी नहीं है, जो जनता में अंकुरित हो गयी है। क्या तुम समझते हो, इन बलिदानों के बिना यह जाग्रति आ सकती थी, और क्या इस जाग्रति के बिना यह समझौता हो सकता था ? मुझे तो इसमें ईश्वर का हाथ साफ नजर आ रहा है।
अमर ने श्रद्धा-भरी आँखों से सुखदा को देखा। उसे ऐसा जानपड़ा कि स्वयं ईश्वर इसके मन में बैठे बोल रहे हैं। वह क्षोभ और ग्लानि निष्ठा के रूप में प्रज्वलित हो उठी, जैसे कड़े-करकट का ढेर आग की चिनगारी पड़ते ही तेज और प्रकाश की राशि बन जाता है। ऐसी प्रकाशमय शान्ति उसे कभी न मिली थी।
उसने प्रेम-गद्गद कण्ठ से कहा--सुखदा, तुम वास्तव में मेरे जीवन का दीपक हो।
उसी वक्त लाला समरकान्त बालक को कन्धे पर बिठाये हुए आकर बोले--अभी तक तो काशी ही चलने का विचार है न?
अमर ने कहा---मुझे तो अभी हरिद्वार जाना है।
सुखदा बोली--तो हम सब वहीं चलेंगे।
समरकान्त ने कुछ हताश होकर कहा-- अच्छी बात है। तो जरा में बाजार से सलोनी के लिए साड़ियाँ लेता आऊँ।
सुखदा ने मुस्कराकर कहा--सलोनी ही के लिए क्यों ? मुन्नी भी तो है।
मुन्नी इधर ही आ रही थी। अपना नाम सुनकर जिज्ञासा-भाव से बोली--क्या मुझे कुछ कहती हो बहूजी ?
सुखदा ने उसकी गरदन में हाथ डालकर कहा--मैं कह रही थी, अब मुन्नी देवी भी हमारे साथ काशी रहेंगी !
मन्त्री ने चौंककर कहा--तो क्या तुम लोग काशी जा रहे हो?