सुखदा हँसी--और तुमने क्या समझा था?
'मैं तो अपने गाँव जाऊँगी।
'हमारे साथ न रहोगी ?'
'तो क्या लाला काशी जा रहे हैं ?'
'और क्या ? तुम्हारी क्या इच्छा है ?
मुन्नी का मुंह लटक गया--कुछ नहीं, यों ही पूछती थी।
अमर ने उसे आश्वासन दिया—नहीं मुन्नी, यह तुम्हें चिढ़ा रही हैं। हम सब हरिद्वार चल रहे हैं।
मुन्नी खिल उठी।
'तब तो बड़ा आनन्द आयेगा। सलोनी काकी मूसलों ढोल बजायेगी।'
अमर ने पूछा--अच्छा, तुम इस फैसले का मतलब समझ गयीं ? 'समझी क्यों नहीं ? पाँच आदमियों की एक कमेटी बनेगी, वह जो कुछ करेगी, उसे सरकार मान लेगी। तुम और सलीम दोनों उस कमेटी में रहोगे। इससे अच्छा और क्या होगा !' ..
'बाकी तीन आदमियों को भी हमी चुनेंगे।'
'तब और भी अच्छा हुआ।
'गवर्नर साहब की सज्जनता और सहृदयता है।'
'तो लोग उन्हें व्यर्थ बदनाम कर रहे थे ?'
'बिल्कुल व्यर्थ ।'
'इतने दिनों के बाद हम फिर अपने गाँव में पहुँचेंगे। और लोग भी तो छूट आये होंगे?'
'आशा है। जोन आये होंगे उनके लिए लिखा-पढी करेंगे।'
'अच्छा, उन तीन आदमियों में कौन-कौन रहेगा?'
'और कोई रहे या न रहे, तुम अवश्य रहोगी।'
'देखती हो बहूजी, यह मुझे इसी तरह छेड़ा करते हैं।'
यह कहते-कहते उसने मुंह फेर लिया। आँखों में आँसू भर आये थे।