पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

तुम पानी भी न पियोगे, बेटा, तुम्हारी क्या खातिर करूँ ? (सकीना से) बेटी, तुमने जो रूमाल काढ़ा है वह लाकर भैया को दिखाओ। शायद इन्हें पसन्द आ जाय। और हमें अल्लाह ने किस लायक बनाया है।'

सकीना रसोई से निकली और एक ताक पर से सिगरेट का एक बड़ा-सा बक्स उठा लायी और उसमें से वह रूमाल निकालकर सिर झुकाये, झिझकती हुई, बुढ़िया के पास आ, रूमाल रख, तेजी से चली गयी।

अमरकान्त आँखें झुकाये हुए था; पर सकीना को सामने देखकर आँखें नीची न रह सकीं। एक रमणी सामने खड़ी हो, तो उसकी ओर से मुँह फेर लेना कितनी भद्दी बात है। सीना का रंग साँवला था और रूप-रेखा देखते हुए वह सुन्दरी न कही जा सकती थी, अंग-प्रत्यंग का गठन भी कवि-वर्णित उपमाओं में मेल न खाता था; पर रंग-रूप, चाल-ढाल, शील-संकोच, इन सबने मिल-जुलकर उसे आकर्षक शोभा प्रदान कर दी थी। वह बड़ी-बड़ी पलकों में आँखें छिपाये, देह चुराये, शोभा की सुगन्ध और ज्योति फैलाती हुई, इस तरह निकल गयी, जैसे स्वप्न-चित्र एक झलक दिखाकर मिट गया हो।

अमरकान्त ने रूमाल उठा लिया और दीपक के प्रकाश में उसे देखने लगा। कितनी सफाई से बेल-बूटें बनाये गये थे। बीच में एक मोर का चित्र था। इस झोपड़े में इतनी सुरुचि ?

चकित होकर बोला--यह तो बड़ा खूबसूरत रूमाल है, माताजी ! सकीना काढ़ने के काम में बहुत होशियार मालूम होती है।

बुढ़िया ने गर्व से कहा--यह सभी काम जानती है भैया, न जाने कैसे सीख लिया। मुहल्ले की दो-चार लड़कियाँ मदरसे पढ़ने जाती है। उन्हीं को काढ़ले देखकर इसने सब कुछ सीख लिया। कोई मर्द घर में होता, तो हमें कुछ काम मिल जाया करता ! इन गरीबों के मुहल्लों में इन कामों की कौन कदर कर सकता है। तुम यह रूमाल लेते जाओ बेटा, एक बेकस बेवा की नज़र है।

अमर ने रूमाल को जेब में रखा, तो उसकी आंखें भर आयीं। उसका बस होता, तो इसी वक्त सौ-दो-सौ रूमालों की फ़रमाइश कर देता। फिर भी यह बात उसके दिल में जम गयी। उसने खड़े होकर कहा--मैं इस रूमाल को

कर्मभूमि
३९