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लालाजी की मुद्रा कठोर हो गयी--फिर भी तुमने लौटा दिया ?

'और क्या करता। मैं तो उसे सेत में भी न लेता। ऐसा रोजगार करना मैं पाप समझता हूँ।'

समरकान्त क्रोध से विकृत होकर बोले--चुप रहो, शरमाते तो नहीं, ऊपर से बातें बनाते हो! १५०) बैठे बैठाये मिलते थे, वह तुमने धर्म के घमण्ड में खो दिये, उस पर से अकड़ते हो ! धर्म है क्या चीज़ ? साल में एक भी गंगा स्नान करते हो ? एक बार भी देवताओं को जल चढ़ाते हो ? कभी राम का नाम लिया है ? ज़िन्दगी में कभी एकादशी या कोई दूसरा व्रत रखा है ? कभी कथा-पुराण पढ़ते या सुनते हो ? तुम क्या जानो धर्म किसे कहते हैं ! धर्म और चीज़ है, रोजगार और चीज़। छि: ! साफ डेढ़ सौ फेंक दिये।

अमरकान्त धर्म की इस व्याख्या पर मन ही मन हँसकर बोला--आपके गंगा-स्नान, पूजा-पाठ मुख्य धर्म के साधन मात्र हैं, धर्म नहीं।

समरकान्त ने मुंह चिढ़ाकर कहा--ठीक कहते हो, बहत ठीक ; अब संसार तुम्हीं को धर्म का आचार्य मानेगा ! अगर तूम्हारे धर्म-मार्ग पर चलता तो आज मैं भी लँगोटी लगाये घूमता होता, तुम भी यो महल में बैठकर मौज न करते होते। चार अक्षर अंग्रेजी पढ़ ली न, यह उसी की विभूति है ! लेकिन मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो अंग्रेजी के विद्वान होकर भी अपना धर्म-कर्म निभाये जाते हैं। साफ डेढ़ सौ पानी में डाल दिये !

अमरकान्त ने अधीर होकर कहा--आप बार बार उसकी चर्चा क्यों करते हैं ? मैं चोरी और डाके के माल का रोजगार न करूँगा, चाहे आप खुश हों या नाराज। मुझे ऐसे रोजगार से घृणा होती है। मैं अपनी आत्मा की हत्या नहीं कर सकता।

तो मेरे काम में वैसी आत्मा की जरूरत नहीं। मैं ऐसी आत्मा चाहता हूँ जो अवसर देखकर, हानि लाभ का विचार करके काम करें।'

'धर्म को मैं हानि-लाभ की तराजू पर नहीं तोल सकता !'

इस वज्र मूर्खता की दवा, चाँटे के सिवा कुछ न थी। लालाजी खून का घूंट पीकर रह गये। अगर हृष्ट-पुष्ट होता, तो आज उसे धर्म की निन्दा करने का मजा मिल जाता। बोले--बस संसार में तुम्हीं तो एक धर्म के

कर्मभूमि
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