नैना के आग्रह को टालने की शक्ति अमरकान्त में न थी।
लाला समरकान्त रात को भोजन न करते थे। इसलिए भाई, भावज, बहन साथ ही खा लिया करते थे। अमर आंगन में पहुँचा तो नैना ने भाभी को बुलाया। सुखदा ने ऊपर ही से कहा, मुझे भूख नहीं है।
मनावन का भार अमरकान्त के सिर पड़ा। वह दबे पांव ऊपर गया। जी में डर रहा था, कि आज मुआमला तूल खींचेगा; पर इसके साथ ही दृढ़ भी था। इस प्रश्न पर दबेगा नहीं। यह ऐसा मार्मिक विषय था, जिस पर किसी प्रकार का समझौता हो ही न सकता था।
अमरकान्त की आहट पाते ही सुखदा सँभल बैठी। उसके पीले मुखपर ऐसी करुण-वेदना झलक रही थी, कि एक क्षण के लिये अमरकान्त चंचल हो गया। अमरकान्त ने उसका हाथ पकड़कर कहा--चलो, भोजन कर लो। आज बहुत देर हो गयी।
'भोजन पीछे करूँगी, पहले मुझे तुमसे एक बात का फैसला करना है। तुम आज दादाजी से लड़ पड़े ?'
'दादाजी से मैं लड़ पड़ा, या उन्होंने मुझे अकारण डांटना शुरू किया ?'
सुखदा में दार्शनिक निरपेक्षता के स्वर में कहा--तो उन्हें डाँटने का अवसर ही क्यों देते हो? मैं मानती हूँ, कि उनकी नीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती। मैं भी उसका समर्थन नहीं करती; लेकिन अब इस उम्र में तुम उन्हें नये रास्ते पर नहीं चला सकते। वह भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जिस पर सारी दुनिया चल रही है। तुमसे जो कुछ हो सके, उनकी मदद करो। जब वह न रहेंगे, उस वक्त अपने आदर्शों का पालन करना। तब कोई तुम्हारा हाथ न पकड़ेगा। इस वक्त तो तुम्हें अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध भी कोई बात करनी पड़े, तो बुरा न मानना चाहिए। उन्हें कम-से-कम इतना सन्तोष तो दिला दो, कि उनके पीछे तुम उनकी कमाई लुटा न दोगे। आज तुम दोनों जनों की बातें सुन रही थी। मुझे तो तुम्हारी ही ज्यादती मालूम होती थी।
अमरकान्त उसके प्रसव भार पर चिन्ता भार न लादना चाहता था; पर प्रसंग ऐसा आ पड़ा था, कि वह अपने को निर्दोष सिद्ध करना आवश्यक समझता था। बोला--उन्होंने आज मुझसे साफ़-साफ़ कह दिया, तुम अपनी फ़िक्र करो। उन्हें अपना धन मुझसे ज़्यादा प्यारा है।